SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 545
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पावन समृति ४२८ श्रीमन्त लोग यदि दीक्षा लें, तो दूसरे पुरुष भी तुम्हारी त्याग वृत्ति का अनुकरण करेंगे।" वे जैन भाई कहने लगे-“महाराज! मेरा ध्येय दूसरा है। मैं धन कमाना और दान देना अपना कर्त्तव्य मानता हूँ।" महाराज-"अरे भाई ! कीचड़ में गिरना और गंगा स्नान करना, चोरी करना और दान-शाला का संचालन करने से क्या लाभ ? दीक्षा लेकर नर भव को सफल करना चाहिए।" आजकल ऐसे अनेक गंगास्नान करने वाले धनिक शिरोमणियों के दर्शन बहुधा होते हैं। शासन की कुशासनशैली ने ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दी है, गज स्नान वृत्ति वाले बढ़ते जाते हैं। परलोक जाने पर क्या होगा यह आगम बतावेगा। सुलझी हुई मनोवृत्ति एक समय एक महिला ने भूल से आचार्य महाराज को आहार में वह वस्तु दे दी, जिसका उन्होंने त्याग कर दिया था। उस पदार्थ का स्वाद आते ही वे अंतराय मानकर आहार लेना बन्द कर चुपचाप बैठ गये। उसके पश्चात् उन्होंने पाँच दिन का उपवास किया और कठोर प्रायश्चित भी लिया। यह देखकर वह महिला महाराज के पास आकर रोने लगी कि मेरी भूल के कारण आपको इतना कष्ट उठाना पड़ा। __महाराज ने उस वृद्धा को बड़े शान्त भाव से समझाते हुए कहा-“तू क्यों खेद करती है। मेरे अन्तराय का उदय आने से ऐसा हुआ है। तूने यदि यथार्थ में देखा जाय, तो मेरा उपकार किया है। तेरे कारण ही मुझे इस शान्ति तथा आनन्द प्रदाता व्रत लेने का सुअवसर मिला। व्रत में कष्ट नहीं होता, आत्मा को अपूर्व शान्ति मिलती है।" __ यथार्थ में आचार्य महाराज निसर्ग सिद्ध (born saint) साधु रहे हैं। जिस तपस्या को देखकर लोग धबड़ाते हैं, उससे उनके मन को शान्ति और आत्मा को बल प्राप्त होता था। आचार्यश्री अपनी शक्ति को देखकर ही तप करते थे, जिससे संक्लेश-भाव की प्राप्ति न हो। त्याग और स्वावलंबन समाज में त्याग के क्षेत्र में अद्भुत प्रवृत्ति है। बहुत-से ऐसे भी त्यागी मिलते हैं, जो एक भी प्रतिमा रूप व्रत नहीं लेते हैं, किन्तु भोली समाज के बीच बड़े त्यागी के नाम से पूजा-प्रतिष्ठा का रसास्वादन करते हैं। शरीर में शक्ति-सामर्थ्य रहते हुए भी हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाते हैं। और समाज द्वारा भरण-पोषण की अपेक्षा करते हैं। सप्तम प्रतिमाधारी व्यापारी आचार्य महाराज ने एक गृहस्थ को सातवीं प्रतिमा के व्रत दिये। वह व्यापारी था। महाराज ने उससे कहा-“तुम व्यापार कर सकते हो। न्यायपूर्वक और सत्य रीति से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy