________________
४१३
चारित्र चक्रवर्ती
शान्ति बहुत बढ़ती है । मन आत्मा के ध्यान की ओर जाता है। वचनालाप में कुछ न कुछ सत्य का अतिक्रमण भी होता ही है, मौन द्वारा सत्य का संरक्षण भी होता है । चित्तवृत्ति बाहरी पदार्थो की ओर नहीं दौड़ती है।"
महाराज का अनुभव
प्रश्न- " उपवास से क्या लाभ होता है ? क्या उससे शरीर को त्रास नहीं होता है ?" उत्तर- " आहार का त्याग करने से शरीर को कष्ट क्यों नहीं होगा ? लम्बे उपवासों के होने पर शरीर में शिथिलता आना स्वाभाविक बात है। फिर उपवास क्यों किया जाता है, यह पूछो, तो उसका उत्तर यह होता है कि उपवास द्वारा मोह की मन्दता होती है। उपवास करने पर शरीर नहीं चलता। जब शरीर की सुधि नहीं रहती है, तो रूपया-पैसा, बाल-बच्चों की भी चिन्ता नहीं सताती है । उस समय मोह - भाव मन्द होता है, आत्मा की शक्ति जाग्रत होती है। अपने शरीर की जब चिंता छूटती है, तब दूसरों की क्या चिन्ता रहेगी ?"
"इस विषय के स्पष्टीकरणार्थ महाराज ने एक कथा सुनाई, बन्दर का अपने बच्चे पर अधिक प्रेम रहता है। एक बार एक बंदरिया का बच्चा मर गया, तो वह उस मृत बच्चे को छाती से चिपकाये रही। उस समय हमने देखा, कुछ बन्दरों ने जबरदस्ती उसके बच्चे को छीनकर नदी में डाल दिया था। बन्दर को पानी में तैरना नहीं आता है। यह हमने प्रत्यक्ष देखा है। इतना प्रेम मृत बच्चे पर बंदरिया का था । "
दूसरी घटना महाराज ने बताई - "एक समय एक हौज में पानी भरा जा रहा था, एक बंदरिया अपने बच्चे को कन्धे पर रखकर उस हौज में थी। जैसे-जैसे पानी बढ़ता जाता था, वह गर्दन तक पानी आने के पूर्व बच्चे को कंधे पर रखकर बचाती रही, किन्तु जब जल की मात्रा बढ़ गई औरस्वयं बंदरिया डूबने लगी, तो उसने बच्चे को पैरों के नीचे दबाया और उस पर खड़ी हो गई, जिससे वह स्वयं न डूबने पावे। इतना ममत्व स्वयं के जीवन पर होता है। उस शरीर के प्रति मोह का भाव उपवास में छूटता है। यह क्या कम लाभ है ?"
उपवास की मर्यादा
प्रश्न- " उपवासों में आपको आकुलता होती है या नहीं ?"
उत्तर- "हम उतने ही उपवास करते हैं, जितने में मन की शांति बनी रहे, जिसमें मन की शान्ति भंग हो, वह काम नहीं करना चाहिए।"
पंचपरमेष्ठी का स्मरण
प्रश्न 'महाराज ! एक ने पहले उपवास का लम्बा नियम ले लिया। उस समय उसे ज्ञान न था, कि यह उपवास मेरे लिए दुःखद हो जायगा। अब वह कष्टपूर्ण स्थिति में क्या करें ?" उत्तर- " व्रतादि के पालन करने पर जब कष्ट आवे, तो पंचपरमेष्ठी का लगातार नाम
""
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org