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________________ सल्लेखना ३६८ मनोव्यथा को कौन लिख सकता है, कह सकता है, बता सकता है। कंठ रुँध गया था। वाणी - विहीन हृदय फूट-फूट कर रोता था। आसपास की प्रकृति रोती-सी लग रही थी । पर्वत का पाषाण भी रोता-सा दिखता था । आज कुंथलगिरि ही नहीं वरन् भारतवर्ष सचमुच अनाथ हो गया, उसके नाथ चले गये । उसके स्वछंद जीवन पर संयम की नाथ लगाने वाले सदा के लिए चले गए। आँखों से अश्रु का प्रवाह बह चला । आज हमारी आत्मा के गुरु सचमुच में यहाँ से स्वर्ग प्रयाण कर गये । शरीर की आकृति अत्यंत सौम्य थी, शांत थी । देखने पर ऐसा लगता था कि आचार्य शांतिसागर महाराज गहरी समाधि में लीन हैं, किन्तु वहाँ शांतिसागर महाराज अब नहीं थे । वे राजहंस उड़कर सुरेन्द्रों के साथी बन गये थे । निधि लुट गई समाधिमरण की सफल साधना से बड़ी जीवन में कोई निधि नहीं है। उस परीक्षा में आचार्यश्री प्रथम श्रेणी में प्रथम आए, इस विचार से तो मन में संतोष होना था, किन्तु उस समय मन विह्वल बन गया था। जीवन से अधिक पूज्य और मान्य धर्म की निधि लुट गई, इस ममतावश नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी । उनके पद्मासन शरीर को पर्वत के उन्नत स्थल पर विराजमान कर सब लोगों को दर्शन कराया गया। उस समय दर्शकों को यही लगता था कि महाराज तो हमारे नेत्रों के समक्ष साक्षात् बैठे है और पुण्य दर्शन दे रहे हैं । पर्वत पर साधुओं आदि ने देशभक्ति का पाठ पढ़ा, कुछ संस्कार हुए। बाद में विमान में उनकी तपोमयी देह को विराजमान किया गया । यहाँ उनका शरीर काष्ठ- विमान विराजमान किया गया था । परमार्थत: महाराज की आत्मा संयम साधना प्रसाद से स्वर्ग के श्रेष्ठ विमान में विराजमान हुई होगी। यह विमान दिव्य विमान का प्रतीक दिखता था । निर्ग्रन्थ का शरीर भी मंगलमय निर्ग्रन्थ साधु का प्राण रहित शरीर भी मंगलरूप कहा गया है। क्योंकि उस शरीर के कण-कण द्वारा जीवन भर में अर्थात् पाप को गलानेवाले अथवा मंगल अर्थात् पुण्य को लाने वाले कार्य हुए। इससे उसे मंगलमय कहना युक्तिसंगत भी है। तिलोयपण्णत्ति में लिखा है- सूरिउवज्झयसाहूदेहाणि हु दव्वमंगलयं ( आचार्य, उपाध्याय तथा साधु का शरीर द्रव्य मंगल है | ) ॥ १ - २० ॥ चरणों को प्रणामांजलि विमानस्थित आचार्य परमेष्ठी के द्रव्य मंगल रूप शरीर के पास पहुँच चरणों को स्पर्श For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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