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________________ ३८७ चारित्रचक्रवर्ती चौमासा होने से वे कोई भी गुरुदर्शन हेतु नहीं आ सकेंगे।" महाराज ने कहा था-"प्राणी अकेला जन्म धारण करता है, अकेला जाता है, 'येसी एकला जासी एकला, साथी कुणि न कुणाचा.(कोई किसी का साथी नहीं है।)'क्यों मैं दूसरों के लिए अपने को रोकूँ, हम किसी को न आने को कहते हैं, और न जाने को कहते हैं।" संघपति सेठ गेंदनमलजी ने कहा-“महाराज! जो आपके शिष्य हैं वे अवश्य आयेंगे।" महाराज-"उनके लिए हम अपनी आत्मा के हित में क्यों बाधा डालें।" इसके पश्चात् ही महाराज के मन के कुंथलगिरि के पर्वत के शिखर पर जाने का विचार आया। यह ज्ञात होते ही भट्टारक जिनसेन स्वामी ने कहा, “महाराज! आज का दिन ठीक नहीं है। आज तो अमावस्या है।" सामान्यतः आचार्यश्री के जीवन में सभी महत्त्व के कार्य मुहूर्त के विचार के साथ हुआ करते थे, किन्तु उस समय उनका मन समाधि के लिये अत्यंत उत्सुक हो चुका था। वैराग्य का सिंधु वेग से उद्वेलित हो रहा था। इससे वे बोल उठे"महावीर भगवान् अमावस्या को ही तो मोक्ष गए हैं। इसमें क्या है ? भवितव्यता अलंघनीय है।" भगवान की कृपा महाराज की महावीर भगवान् के प्रति अपार भक्ति रही है। जबकि कोई महत्त्व का धार्मिक कार्य उनके प्रयत्न से सम्पन्न हो जाता था, तब वे कहा करते थे-"महावीर भगवान् की कृपा है, उससे ऐसी बात बन गई।" अपने कार्य को महत्व देना और अहंकार की बातें करना मैंने उनमें कभी नहीं पाया। एक दिन महाराज ने कवलाना में कहा था"आज महावीर भगवान् हमारे बीच में नहीं हैं तो क्या हुआ, उनकी वाणी तो विद्यमान है, उससे हम अपनी आत्मा का अच्छी तरह कल्याण कर सकते हैं।" सुन्दर प्रायश्चित महाराज का अनुभव और तत्त्व को देखने की दृष्टि निराली थी। एक बार महाराज बारामती में थे। वहाँ एक सम्पन्न महिला की बहुमूल्य नथ खो गई । वह हजारों रुपये की थी। इससे बड़ों-बड़ों पर शक हो रहा था। अंत में खोजने पर उसी महिला के पास वह आभूषण मिल गया। वह बात जब महाराज को ज्ञात हुई, तब महाराज ने उस महिला से कहा-“तुम्हें प्रायश्चित्त लेना चाहिए। तुमने दूसरों पर प्रमादवश दोषारोपण किया।" उसने पूछा-"क्या प्रायश्चित्त लिया जाय ?" महाराज ने कहा-“यहाँ स्थित जिन लोगों पर तुमने दोष की कल्पना की थी, उनको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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