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________________ सल्लेखना स्वच्छ जीवन का पोषण शास्त्रों से परिचित धन के लोलुपी कुछ भाई भी ऐसे लोगों की हाँ में हाँ मिलाकर वीतरागवाणी को सकलंक बनाने की दुःखद चेष्टा करते हैं । विद्वत्ता का गौरव भूलकर वे लोग द्रव्य के दास बनकर आगम की आज्ञा के लोप करने पर प्राप्त होने वाले नरक तिर्यंच गति के दुःखो को भूलकर अपने मालिकों की स्वच्छंद प्रवृत्ति का पोषण करने लगे हैं। इस स्थिति में उन श्रीमानों की भी परमार्थदृष्टि से बड़ी दुर्गति होती है। कारण धन का मद उनको अपनी मोहमयी वाणी रूपी मदिरा पिलाकर, उनको निरर्गल बना देते हैं। ऐसी स्थिति में यह अत्यंत आवश्यक है कि नर जन्म और श्रावक का कुल पाने वाले व्यक्ति को वीतराग की वाणी के प्रति श्रद्धा धारण करनी चाहिए । Jain Education International ३८२ समझदार आदमी जिनागम का जैसा जैसा व्यवस्थित अभ्यास या स्वाध्याय करता जायगा, वैसा-वैसा उसका विश्वास विशुद्ध होगा । और उनकी श्रद्धा बलवती होती जायगी। पहले लोगों की शास्त्र, स्वाध्याय तथा चर्चा में रुचि रहा करती थी । किन्तु आज लोगों का झुकाव लौकिकता की ओर अधिक रहा करता है। ऐसे लोग शास्त्रों को पढ़कर विषय पोषण की सामग्री खोजते फिरते हैं। समाज के अत्यन्त वृद्ध, करुणाशील, अनुभवी तथा तपस्वी धर्मगुरु ने स्वर्गयात्रा करने के पूर्व जो उक्त बात कही है, उसके अनुसार प्रवृत्ति करना हमारे लिए हितकारी है। स्वाध्याय प्रचार दूसरी बात महाराज ने स्वाध्याय- प्रचार की कही थी। आज जनसाधारण के हाथ में जब अल्प मूल्य में उपयोगी साहित्य मुद्रित होकर आवे, तो स्वाध्याय का प्रचार हो; लेकिन ग्रंथ - विक्रेता महाशय जिनवाणी को बहुमूल्य में बेचकर सुखोपभोग की सामग्री इकट्ठी करना चाहते हैं। शास्त्रों को बेचकर धनी बनने वालों की दुखद कथा सुनाते हुए एक अनुभवी समाज - नेता ने बताया था कि ऐसा करने से बहुत से अर्थ - लोलुपी आगम विक्रेताओं पर किस प्रकार से असाता का पहाड़ टूटा है, फिर भी उनकी आँखों पर पट्टी बंधी हुई है, अतः आवश्यक है कि समाज का विचारक वर्ग इस बात की व्यवस्था करे ताकि ज्ञानसंवर्धन तथा जीवन को विमल बनाने वाले जैन - साहित्य कम से कम मूल्य में समाज तथा जनता को प्राप्त हो सके। खेद है कि सम्पन्न लोगों की संस्थाओं में भी शास्त्र द्वारा अर्थार्जन की दृष्टि प्रमुख रहती है। आचार्यश्री ऐसी वृत्ति को अहितकारी सोचते थे। समाज के सहृदय विद्वानों, कार्यकर्ताओं तथा दानियों को ऐसा उद्योग करना चाहिए, जिससे अल्प तथा उचित मूल्य में सुन्दर तथा मनन करने योग्य साहित्य का प्रकाशन सम्भव हो सके। स्व. राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू ने सामायिक जैन - साहित्य के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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