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________________ ३८१ चारित्र चक्रवर्ती तथा कल्याण के पथ पर कुठाराघात करता है। आज के समय में, समाज के मध्य निश्चय और व्यवहार-पक्ष की रस्सा-खिंचाई के संघर्ष में, आचार्य शांतिसागरजी की जीवनी पूर्ण समाधानप्रद सामग्री प्रस्तुत करती है। मुनिबन्धु को संदेश उस समय ६२ वर्ष की वय वाले मुनिबन्धु चारित्रचूड़ामणि श्री १०८ वर्धमान सागर महाराज के लिये पूज्यश्री ने संदेश भेजा था कि-"अभी १२ वर्ष सल्लेखना के ६-७ वर्ष तुम्हारे शेष हैं। अत: कोई गड़बड़ मत करना। जब तक शक्ति है तब तक आहार लेना। धीरज रखकर ध्यान किया करना। हमारे अंत पर दुःखी नहीं होना और परिणामों में बिगाड़ मत लाना। शक्ति हो तो समीप में विहार करना। नहीं तो थोड़े दिन शेडवाल बस्ती में और थोड़े दिन शेडवाल के आश्रम में समय व्यतीत करना। अपने घराने में पिता, पितामह आदि सभी सल्लेखना करते आये हैं, इसी प्रकार तुम भी उसी परम्परा का रक्षण करना। इससे स्वर्ग-मोक्ष प्राप्त होता है। अच्छे भाव से ध्यान करते गए, तो स्वर्ग मिलेगा, मोक्ष मिलेगा, इसमें संदेह नहीं है।" भट्टारक युगल को उपदेश कुंथलगिरि में आचार्यश्री के समीप भट्टारक लक्ष्मीसेनजी कोल्हापुर मठ वाले थे। भट्टारक जिनसेन स्वामी भी सदा की भाँति गुरुदेव की सेवा में विद्यमान रहते थे। एक दिन पूज्य महाराज ने दोनों भट्टारकों को यह महत्वपूर्ण बात कही थी,“धर्म का रक्षण करो, समाज का रक्षण करो और साधु-संतों का रक्षण करो।" भट्टारक लक्ष्मीसेनजी का अब निर्ग्रन्थ होने के उपरांत स्वर्गवास हो गया। श्रद्धा, स्वाध्याय, प्रचार __ आचार्यश्री ने यमसल्लेखना लेते हुए तीन बड़ी महत्वपूर्ण बातें कही थी-“१. जिनेन्द्र भगवान् की वाणी पर विश्वास करो। २. स्वाध्याय का प्रचार करो।" उक्त दोनों बातों के सिवाय उन महापुरुष ने यह भी कहा था कि-"३. जैनधर्म का प्रचार करो।" आचार्य महाराज की उपरोक्त तीनों बातें इस युग की दृष्टि से रत्नत्रय सदृश हैं। आज का युग आज के युग में जो भी व्यक्ति लक्ष्मी का कृपापात्र बना, या जिसके पास लौकिक ज्ञान का थोड़ा सा अंश आया, वह अहंकार-मूर्ति तुरन्त ही अपने को महान् ज्ञानी मानकर जिनागमन पर संदेह करना प्रारंभ कर देता है। हमें ऐसे सत्पुरुषों के दर्शन का अनेक जगह सौभाग्य मिला करता है, जो भद्रता के नाते आगम के विषयों से स्वयं को अत्यंत अपरिचित बताते हुए भी उन ऋषि वाक्यों को सदोष कहने में संकोच करते हैं।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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