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सल्लेखना
पूज्यपाद स्वामी ने उपासकाचार शास्त्र में कहा है
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ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदानात् सुखी नित्यं, निर्वाधिर्भेषजाद्भवेत् ॥
आत्महित में सर्वदा सजग
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मैंने सल्लेखना के बीसवें दिन सुयोग पाकर कहा- "महाराज ! समंतभद्र स्वामी ने स्वयंभूस्त्रोत में एक बड़ी सुन्दर बात कही है। शीतलनाथ भगवान् की स्तुति में वे कहते हैं कि- भगवन् ! जगत् के प्राणी अपनी आजीविका तथा सुखोपभोग के योग्य सामग्री का अर्जन करने में दिन व्यतीत करके रात को श्रान्त हो सो जाते हैं, किन्तु आप दिन-रात प्रमाद का त्याग कर आत्महित के विशुद्ध पथ में सजग रहते हैं। इसी प्रकार आप भी चौबीसों घंटे आत्मकल्याण में निमग्न रहते हैं । धन्य है आपका जीवन और आपकी आत्मसाधना । "
अपने विषय में
महाराज बोले-“हमारा शरीर बहुत चलने वाला था । आँख ने गड़बड़ी कर दी। संयम निर्दोष पालने में विघ्न देखकर हमें समाधि धारण करनी पड़ी। "
इतने में एक भाई ने कह दिया- "महाराज ! आप तो तीर्थंकर होंगे।"
महाराज बोले- "तीर्थंकर हों या केवली हों कुछ भी हों। मोक्ष मिलेगा, तो ठीक है । " कुछ क्षण के पश्चात् गुरुदेव बोले- "हमें उसकी भी लालसा नहीं है । "
कुछ प्रमादी अकर्मण्य बन धर्मतीर्थंकर बनने का स्वप्न देखते हैं । आचार्यश्री परम पुरुषार्थी बनकर जीवन - शोधन करते हुए मोक्ष पुरुषार्थ के लिए उद्योगशील रहते थे । महाराज का शरीर
मैंने कहा- "महाराज ! आपका यह शरीर हमारी दृष्टि से कल्याणदायी तथा ममत्व की वस्तु तो है ही, यह आपके लिए भी उपेक्षा का पात्र नहीं है। यह रत्नत्रय का साधक शरीर जब तक रहेगा, तब तक आपका महाव्रती का जीवन है। आप छठवें, सातवें गुणस्थान का आनन्द लेते रहेंगे। इसे छोड़ने में शीघ्रता की, तो आपकी भी हानि है। आपको अविरत नाम का चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त होगा। अतः आपको जल ग्रहण नहीं छोड़ना चाहिए ।"
महाराज - "हमने जल का त्याग कहाँ किया है ?"
मैंने कहा- " आपने ४ दिन से जल लेना बंद कर दिया है। इससे सब लोग चिंतामग्न हो गए हैं। आगे जल लेने की हमारी प्रार्थना पर अवश्य ध्यान दीजिये । "
जल परित्याग का हेतु
हमारा तर्क तो महाराज को अनुकुल लगा, किन्तु अब जल लेना सामान्य बात
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