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________________ ३६६ चारित्र चक्रवर्ती की परिणति का है। उसे ऊर्ध्वमुखी बनाने के लिए सत्प्रयत्न तथा उद्योग अत्यन्त आवश्यक है। इस कारण वे सदा धर्मोपदेश दिया करते थे। मार्मिक दृष्टि एक बात और है, महाराज में यह विशेषता थी कि आदमी की सूरत देखकर उसे पूर्णतया पहिचान जाते थे। इस प्रवीणता के कारण अंत:करण पात्र-अपात्र का पहले ही विचार कर लिया करता था। पंजाब प्रान्त के एक शास्त्रीजी सुनाते थे-“मैं महाराज के पास गया। मैंने उनसे ब्रह्मचर्य प्रतिमा देने की प्रार्थना की। मुझे कई दिन तक लगातार उनके पीछे पड़ना पड़ा, तब योग्य मुहूर्त में गुरुदेव ने मुझे उक्त व्रत देकर मेरा जीवन मंगलमय बनाया।" मैंने भी देखा कि महाराज व्यक्ति की शक्ति, अवस्था, पात्रता आदि का भली प्रकार पूर्ण विचार करके ही व्रतादि देते थे। एक समय एक व्यक्ति बड़ा व्रत माँग रहा था, किन्तु महाराज ने उसे छोटा व्रत दिया। मैंने कहा-“महाराज ! आपने ऐसा क्यों किया ? उसके भाव ऊँचे थे, तो आपको इच्छानुसार बड़ा व्रत देना था।" जीव का कल्याण लक्ष्य हो महाराज बोले-“उसकीअन्तरग स्थिति को हम जानते हैं। वह बड़े व्रत का निर्वाह नहीं कर सकेगा। जबरदस्ती व्रत लेकर उसको भंग करेगा। इससे उसकी आत्मा का अहित हो जायगा। हमें ऐसा काम करना है, जिससे उस जीव की भलाई तथा उत्कर्ष हो।" इस कथन पर हमारे पूज्य साधुओं को विशेष ध्यान देना स्व तथा पर का हितकारी रहेगा। सप्तम प्रतिमा धारण उक्त बाबूरावजी मार्ले ने महाराज का कमण्डलु उठा लिया, तब महाराज बोले"देखो! क्षण भर का भरोसा नहीं है। कल क्या हो जायगा यह कौन जानता है। तुम आगे दीक्षा लोगे, यह ठीक है किन्तु बताओ! अभी क्या लेते हो।" उक्त व्यक्ति की अच्छी होनहार होने से उसने कह दिया-“महाराज, मैं सप्तम प्रतिमा लेता हूँ।" ___ महाराज ने कहा-“अच्छा"। उन्होंने महाराज के चरणों को प्रणाम किया। महाराज ने पिच्छि सिरपर रखकर अपना पवित्र आशीर्वाद दिया। छोटे-से विनोद का इतना मधुर पवित्र परिपाक हुआ। एक व्यक्ति धन-वैभव के होते हुए भी गुरुदेव के प्रसाद से ब्रह्मवती हो गया। ओजपूर्ण वाणी महाराज की वाणी में बड़ा बल था। संयम को धारण न करने वाला भी हृदय से संयम का भक्त बन जाता था और उसके मन में भी संयम के प्रति हार्दिक ममता और प्रगाढ़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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