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चारित्र चक्रवर्ती जनौंड़ा को महाराज ने कहा-“देखो! हमने यम समाधि ली है और हम अब शीघ्र जाने वाले हैं। तुमको भी संयम धारणा करना चाहिए। इसके सिवाय जीव का हित नहीं होता है।" जनगौड़ा ने कहा था-"महाराज, क्या करूँ ? जो आज्ञा हो, वह करने को तैयार हूँ।" दिगम्बर दीक्षा का संकल्प
महाराज बोले-“तुमको हमारी ही तरह दिगम्बर दीक्षा धारण करनी चाहिए। इससे अधिक आनन्द और शांति का दूसरा मार्ग नहीं है।"
भावलिंगी श्रमण को मुनित्व सचमुच में आनन्द का भण्डार लगता है। जिनके मन में सम्यज्ञान तथा वैराग्य की ज्योति नहीं जगती है, उनको वह पद भयावह और कष्टपूर्ण प्रतीत होता है। इष्ट बन्धु को धर्म में लगाना
सुभाषितकार कहता है- जो तुम्हारा इष्ट है, उसे धर्म के सन्मुख करो-'इष्टं धर्मेण योजयेत्।' इस नियमानुसार आचार्यश्री ने अपने पूर्व के स्नेहपात्र को श्रेष्ठ कल्याण की बात कही थी। जनगौंड़ा के पिता कुमगौंड़ा पर भी महाराज का बड़ा प्रेम था। एक दिन महाराज ने मुझसे कहा-“कुमगौंडा का असमय में मरण हो गया। हम उसे ब्रह्मचर्य प्रतिमामात्र दे पाये। हमारा इरादा उसे भी वर्धमानसागर की तरह मुनि बनाने का था। वर्धमानसागर भी पहले गृहस्थी के जाल में था। जिस प्रकार सुनार चाँदी के तार को यंत्र में से जोर से खींचता है, उसी प्रकार हमने उसे संयम की ओर खींचकर लगाया है।"
इस दृष्टि से महाराज ने जनगोंडा को मुनि बनने को कहा था।
जनौंड़ा ने कहा था-"महाराज! कुछ वर्षों की साधना के पश्चात् मुनि बनने की मैं प्रतिज्ञा करता हूँ।"
पश्चात् महाराज ने जनगौंड़ा की स्त्री लक्ष्मीदेवी को बुलाकर पूछा था-“यदि यह मुनि बनता है तो तुमको कोई आपत्ति तो नहीं है ?" . ___ वह महिला बोली-“महाराज ! कल के बदले यदि वे आज ही मुनि बनना चाहें, तो मेरी ओर से कोई भी रोक-टोक नहीं है।" यह बात सुनकर उन क्षपकराज को बहुत शांति मिली। महाराज ने उस बाई को व्रत प्रतिमा दी। क्षण भर में वे दम्पत्ति व्रती श्रावक बन गए। मुनिपद की परम्परा का ध्यान ___ महाराज ने जनगोंडा से एक बात और कही थी-“तुम मुनि बन जाओ, तो अपने पुत्र को भी आगे मुनिपद धारण करने को कहना न भूलना। अपने घराने में मुनिपद धारण करने की परम्परा बराबर चलती जावे, यह ध्यान रखना।"
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