________________
प्रकीर्णक
३५७ रत्नाकर के बाह्य भाग पर पड़े हुए कुछ रत्नों के समान इस शांति सिन्धु के जीवन की कुछ बातों का वर्णन किया है। यथार्थ में जैसे समुद्र के भीतर अत्यंत दीप्तिमय रत्न-राशि शोभायमान होती है, इसी प्रकार इन तपोमूर्ति मुनिनाथ की आत्मा अगणित अपूर्वताओं की आगार थी जिसका बाह्य जगत् को ज्ञान नहीं है।
शांति के सिन्धु की विशालता और गंभीरता का अनुमान केवल इस एक संस्मरण से हो जायेगा ऐसा हमें विश्वास है। मैंने कहा-“महाराज, आपने मुझ पर महाधवल ग्रंथ के संपादन आदि का पवित्र भार रखा है। जयधवल ग्रंथराज की सेवा का कार्य भी सौंपा है,
और भी बड़े-बड़े कार्य वर्धमान भगवान् के शासन की सेवा निमित्त स्वीकार करते जाता हूँ। आप जैसे तपस्वियों के आशीर्वाद में अपार सामर्थ्य है, महान् शक्ति है इसलिए आशीर्वाद देने की प्रार्थना है।" साम्य दृष्टि
महाराज ने कहा था-"हम तुम्हें आशीर्वाद क्यों नहीं देंगे? तुम जो जिनधर्म की सदा सेवा करते हो। हमारा आशीर्वाद तो उन जीवों के लिए भी है जो हमारा प्राण लेने का भी प्रयत्न करते हैं। विरोधी को भी हम आशीर्वाद देते हैं कि उनकी आत्मा का मिथ्यात्व दूर हो और वे मंगलमय धर्म की शरण में आवे। आत्मा का सच्चा कल्याण धर्म की शरण लेने में है।"
नग्नता महत्वपूर्ण नहीं है महाराज ने कहा था केवल-“नग्नता महत्वपूर्ण नहीं है, बन्दर भी नग्न है, पशु भी नम है। मनुष्य में नग्नता के साथ विशेष गुण पाये जाते हैं, इसलिए उसका दिगम्बरत्व पूज्यनीय होता है।"
___-पृष्ठ ३३६, प्रकीर्णक, अलौकिक अनाशक्ति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org