SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 456
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४४ चारित्र चक्रवर्ती __ अपनी आँख में काँच बिन्दू रोग को लक्ष्य में करते हुए उन्होंने कहा था, "देवों को चकित करने वाले सौन्दर्य वाले सनत्कुमार चक्रवर्ती ने जब मुनिपद धारण किया था, तब उनके अपूर्व सुन्दर पुंज शरीर को रोग ने जर्जरित कर दिया था। उनकी तुलना में हम क्या चीज हैं ?" वे बोले-“रोग के डर से हम क्या व्रत-उपवास नहीं करेंगे? रोगी होने पर कभी भी व्रत-पालन में शिथिलता नहीं आने देना चाहिये।" आचार्य महाराज की उपरोक्त वाणी प्रत्येक को ध्यान में रखना चाहिए। उसे भूलने से बड़ा अनर्थ होता है। कुछ समय पूर्व एक बड़े तपस्वी रोगी हो गये थे। कुछ लोगों ने शिथिलाचार के गड्ढे में उतारकर जीवनभर की संयम निधि को नष्ट कर दिया। धर्मात्मा पुरुषों को शिथिल मार्ग की ओर ले जानेवाले व्यक्तियों को चाहे वे बड़े विद्वान् हों या श्रीमान् हों या त्यागी रूपधारी हों, सर्पराज सदृश जानकर उनके जहर से अपने पुण्य संयमी जीवन को बचाना चाहिए। संयम को पालते हुए मृत्यु अमृतकुम्भ सदृश है, उसके बिना वह विषकुम्भ तुल्य है। सामयिक बात महाराज सामयिक बात कहने में अत्यंत प्रवीण थे। एक दिन की बात है, शिरोड के वकील महाराज के पास आकर कहने लगे-“महाराज, हमें आत्मा दिखता है। अब और क्या करना चाहिए ?" कोई तार्किक होता, तो वकील साहब के आत्मदर्शन के विषय में विविध प्रश्नों के द्वारा उनके कृत्रिम आत्माबोध की कलई खोलकर उनका उपहास करने का उद्योग करता, किन्तु यहाँ सन्तराज आचार्य महाराज के मन में उस भोले वकील के प्रति दया का भाव उत्पन्न हुआ। उन्होंने कहा-“अब तुम्हें मांस, मदिरा आदि छोड़ देना चाहिए; इससे आत्मा का अच्छी तरह दर्शन होगा।" अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था-“पाप का त्याग करने से यह जीव देवगति में तीर्थंकर की अकृत्रिम मूर्तिदर्शन आदि द्वारा सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा और तब यथार्थ में आत्मा का दर्शन होगा।" अपूर्व स्थिरता महाराज की तपस्या अद्भुत है। एक बार वे मुक्तागिरि क्षेत्र से इन्दौर की तरफ जाने को उद्यत हुए। रास्ते में भीषण उष्णता से सारा पर्वत और उसकी पार्श्वभूमि आग-सी हो रही थी। इस समय मुनि नेमिसागर जी को भयंकर लू (Sun-Stroke) लग गई और उनकी ऐसी चेष्टा हो गई थी, जिससे ऐसा दिखने लगा था कि उनकी आत्मा अब शरीर में अधिक देर तक नहीं रहेगी। उस समय की गर्मी का इस पर से अनुमान हो सकता है कि साथ के चलनेवाले किन्हीं लोगों ने उस जलशून्य प्रदेश में अत्यंत तृषित हो मुनियों के कमण्डलु का पानी तक पी लिया था। संध्या के समय नेमिसागरजी की प्रकृति कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy