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प्रकीर्णक
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अव्यर्थ और निर्दोष औषधि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा अतिलोभ का परित्याग करके दयामय जीवन व्यतीत करना है ।"
जगत् में रूप, विद्या, धन में से कोई एक भी बात होती है तो जीव आदर को प्राप्त करता है, किन्तु तीनों विशेषताओं से शून्य वह बलदेव का जीव सर्वत्र तिरस्कार का पात्र बना। उसने सदगुरु की शरण ली, जिन्होंने उसके दुःख दूर करने का उपाय अहिंसापूर्ण तपस्या करना बताया। वह उग्र तपश्चर्या में निमग्न हो गया, जिसके फलस्वरूप वह विद्या, बल, वैभव तथा सौन्दर्यसम्पन्न बलराम के रूप में उत्पन्न हुआ। इसलिए महाराज ने कहा था- "सुखी बनने का उपाय धन की छीना-झपटी, कलह, अनीति तथा अत्याचार नहीं है। उसका प्रशस्त मार्ग है, इन्द्रियों का निग्रह और संयम की साधना ।" महाराज ने कहा था, "पवित्र पुरुषार्थ के द्वारा सुख पाना हमारे हाथ में है। मोक्ष प्राप्ति के निश्चित समय के बीच में यदि संयम और व्रतपालन किया तो जीव उस सुख को प्राप्त करता है जिसकी सब कामना करते है और उस विपत्ति से बचाता है जिससे सब डरते हैं । संयमपालन करने के लिए दैव का अवलम्बन छोड़ पुरुषार्थ का आश्रय लेना चाहिये । विपत्ति के आने पर हिम्मत हारना सच्चे पुरुषार्थ का धर्म नहीं है । '
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महाराज ने यह भी कहा कि- “जब पाप कर्मोदय का तीव्र वेग हो उस समय शांत रहना चाहिए और जब कर्म का वेग कुछ मन्द हो तब पुरुषार्थ करना चाहिए ।" सुन्दर शिक्षा
अपना व्यक्तिगत अनुभव बताते हुए उन्होंने कहा था- "जब भोजग्राम में वेदगंगा और दूधगंगा के संगम में हम तैरते थे उस समय मध्य में पानी का वेग रहने से उसके विरोध शक्ति नलगा हम चुपचाप शांत रहते थे, और जहाँ वेगवती धारा से दूर हुए कि हाथपैर हिलाते ही किनारे पर पहुँच जाते थे। इसी प्रकार पापोदय का वेग हो तब कुछ समय बिना घबड़ाए हुए शांत रहना चाहिए तथा वेग मन्द होते ही संयम पालने में पुरुषार्थ करके सदा के लिए संकटमुक्त होना चाहिए ।"
शास्त्र समुद्र है, जीव मछली है
प्रसंगवश शास्त्र के सम्बन्ध में उन्होंने कहा था- "शास्त्रों में इतनी सुन्दर बात निकलती है कि उसकी महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता । शास्त्र जलधि है, जीव मछली है । "उसमें जीव जितना घूमे और अवगाहन करे उतना ही थोड़ा है। "
रोगी को मार्गदर्शन
महाराज ने कहा था- "जो लोग शरीर को रोगी देख संयम से डरते हैं, उन्हें रोग से न डर कर यथाशक्ति संयम का पालन करना चाहिए ।"
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