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________________ ३३८ अहिंसाधर्म अपरिवर्तनीय है आज के युग में लोकप्रवाह के अनुसार धर्म में परिवर्तन की बात सोचते हैं उसके संदेह का निवारण करते हुए महाराज ने कहा था- "जैसे औषधि में फेरफार करने से रोग दूर नहीं होता है, उसी प्रकार जिन भगवान् के द्वारा बताये गए मार्ग का उल्लंघन करने से कर्मों के रोग का क्षय नहीं होता । आगम के मार्ग को छोड़कर जाने से तथा मनमाने रूप में प्रवृत्ति करने से सिद्धि नहीं मिलती। जैसे मार्ग छोड़कर उल्टे रास्ते से जाने वाले को अपने इष्ट ग्राम की प्राप्ति नहीं होती उसी प्रकार मोक्ष नगर को जाने के लिए अहिंसा का मार्ग अंगीकार करना आवश्यक है। अहिंसामय जीवन व्यतीत करने के लिए मुनिपद धारण करना आवश्यक है। इसके सिवाय अन्य उन्मार्ग है । " महाराज ने कहा- 'जिनवाणी हमारा प्राण है' चारित्र चक्रवर्ती जिनवाणी के प्रति महाराज का अगाध प्रेम है। महान् श्रद्धा है । वर्णनातीत अनुराग है । उन्होंने धवलादि ग्रंथों के संरक्षण की ओर उल्लेख करते हुए कहा था-' -"भगवान् की होने के कारण ग्रंथ सचमुच हमारे जीवन हैं। इनका रक्षण किया तो समझना चाहिए कि हमारे प्राणों की रक्षा कर ली ।" इन ग्रंथों के रक्षण की महाराज को कितनी चिन्ता रही यह माया के जाल में फँसा हुआ मनुष्य नहीं जानता । श्रुतरक्षण की चिन्ता वे बोले-“हमें भगवान् की वाणी की कितनी चिन्ता है, इसे तुम लोग क्या जानो ? वंध्या प्रसव-वेदना को क्या समझे ? श्रुत का रक्षण कर धरसेन स्वामी ने बड़ा उपकार किया। उनके उपकार को कैसे भूला जाय ? इसीलिए तो फलटण के मन्दिर में उनकी मूर्ति विराजमान करवायी है ।" वे बोले - " अरे बाबा ! यह जिनवाणी हमारा प्राण है । " धर्म में अपारशक्ति जो समझते हैं आज धर्म में कोई सामर्थ्य नहीं रहा है उनका संदेह निवारण करते हुए महाराज ने कहा- " आज भी धर्म में अपारशक्ति है। तुम्हारे भाव में शक्ति होना चाहिए। परिणामों में चंचलता रही तो कुछ नहीं हो सकता। भगवान् की भक्ति करने से उनके भक्त आप ही आप सहायता करते हैं।" चेतावनी . जो धर्म को छोड़कर अन्यायपूर्ण आचरण करते हैं, उन अविवेकियों को सचेत करते हुए महाराज ने कहा था- " मर्यादा के बाहर अन्यायपूर्ण प्रवृत्ति करने वाले को अपने कर्म का फल नियम से प्राप्त होता है । अन्यायी का पतन निश्चित है । " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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