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चारित्र चक्रवर्ती
मुनि, गजकुमार मुनि, सुकौशल मुनि आदि का पवित्र चरित्र बताया गया है, जिससे ज्ञात होता है कि जानवरों के द्वारा शरीर के खाये जाने पर अथवा अग्नि के द्वारा देह का दाह होने पर भी वे अपनी आत्मा की आराधना से विचलित नहीं हुए थे। उस निःस्पृहता और वीतरागता की झलक आचार्य महाराज के जीवन में भी मिलती है।
धनकुबेरों को अकिंचनता का पाठ
एक दिन फलटण में हीरक जयंती के समारंभ में आगत अनेक धनकुबेर धनिकों का समुदाय महाराज की सेवा में १४ जून, १६५२ को उपस्थित था । उस समय महाराज ने उन श्रीमंतो से कहा, "देखो, कर्मों के बन्धन से छूटकर मोक्ष पाने के लिए आप सबको हमारे समान दिगंबरत्व को धारण करना होगा, क्योंकि इस पद को अंगीकार किये बिना मोक्ष को प्राप्त करने का अन्य मार्ग नहीं है।” उन्होंने यह भी कहा था कि "यह जीव आगे दुःखी न हो, इससे प्रत्येक व्यक्ति को व्रत धारण कर व्रती बनना चाहिए ।" उदात्त दृष्टि
एक दिन पूर्व १३ जून को जब आचार्य महाराज के प्रति भारतवर्ष के प्रमुख दिगम्बर जैन बंधुओं ने, संस्थाओं ने तथा पंचायतों ने आचार्य महाराज के द्वारा किये गये अनंत उपकारों पर श्रद्धा के सुमन चढ़ाये और उनके गुणों का वर्णन किया था, तब आचार्य महाराज ने कहा था, "इस श्रद्धांजलि से हमें रंचमात्र भी हर्ष नहीं है। हमें अपनी प्रशंसा सुनकर राई बराबर भी आनन्द नहीं होता है, इस प्रशंसा से स्वर्ग नहीं मिलता है। तुम हमारी किस बात की प्रशंसा करते हो ? तुमने श्रद्धांजली अर्पित की अथवा निंदा की, तो क्या हुआ ? हमारी दृष्टि में दोनों का कोई मूल्य नहीं है । "
स्वाश्रयी दृष्टि
"तुम हमारी मूर्ति बनाकर पूजो, तो इससे हमारा क्या हित होगा। हमारी आत्मा एक है। सुख-दुःख भोगने वाला वही एक है। इसमें कोई भी सहायक नहीं है । भगवान् भी सहायक नहीं है। जैसा आत्मा करेगा, वैसा भोगेगा। समस्त जगत् अनित्य है। बड़े-बड़े ऋद्धिधारी महान् ज्ञान के धारक मुनि नहीं रहे, तब हम क्या चीज हैं ?"
इस पर हमारे सबसे छोटे भाई सन्मति कुमार दिवाकर ने कहा, "महाराज ! आपका गुणगौरव करने से भव्य जीवों को पुण्य लाभ होता है, इसलिए आप उसे निरापयोगी क्यों कहते है ?” पूज्य श्री इस मधुर बात को सुनकर चुप हो गए।
समता
महाराज ने कहा, "हमारे लिए पाप और पुण्य दोनों समान है। वे दोनों ही बेड़ी के समान हैं। श्रद्धांजली से या निन्दा से हमें क्या है ? यह उत्सव तुम लोगों को बड़े महत्त्व
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