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प्रकीर्णक जिस प्रकार अमृतरस पान करने वाला व्यक्ति पुन: उस सुधा का रसास्वादन करना चाहता है, इसी प्रकार आचार्य महाराज का पुण्य जीवन रहा है। जितना अधिक उनके जीवन का निकट से अध्ययन किया जाता था तथा उनके पुण्य संपर्क में मनुष्यजीवन के मंगल क्षण व्यतीत किये जाते थे उतना ही महान् पवित्र तथा स्फूर्तिपूर्ण उनका जीवन विदित होता था। उनके जीवन में शांति, सौंदर्य और कल्याण का अपूर्व समन्वय रहा है। यदि सहृदय साहित्यकार, लेखक, कवि और कलाकार इनके पास पहँचता था, तो प्रत्येक सरस्वती के सेवक को चमत्कारप्रद विपुल ज्ञानभंडार मिले बिना नहीं रहता था। आत्मस्मृति तथा शरीरविस्मृति
उनका तप:पुनीत जीवन विलक्षण था। माया के जाल से विमुक्त ऐसी संयम-मूर्ति आत्मा का आज के भोगमग्न संसार में दर्शन होना वास्तव में लोकोत्तर पुण्य की बात है। सन् १९५२ के आरंभ में आचार्य महाराज दहीगाँव नाम के तीर्थक्षेत्र में विराजमान थे। एक दिन वहाँ के मंदिर से दूसरी जगह जाते हुए उनका पैर ठीक सीढ़ी पर न पड़ा, इसलिए वे जमीन पर गिर पड़े। यह तो बड़े पुण्य की बात थी कि वह प्राण लेने वाली दुर्घटना एक पैर में गहरा घाव ही दे पाई। महाराज के पैर में डेढ़ इंच गहरा घाव हो गया, जिसमें एक बादाम सहज ही समा सकती थी। उस स्थिति में महाराज ने पैर में किसी प्रकार की पट्टी वगैरह नहीं बँधवाई, एक साधारण-सी निर्दोष औषधि पैर में लगती थी। वे ऐसी वस्तु का उपयोग नहीं करते, जिसमें शराब, मांस, चर्बी आदि हो। निर्ममता
उनके पास सिवनी से दो व्यक्ति दर्शनार्थ पहुंचे थे। उन्होंने आकर हमें सुनाया कि महाराज के पास हमें तीन-चार घंटे रहने का सौभाग्य मिला था। उस समय हम लोगों ने यह विलक्षण बात देखी कि पैर में भयंकर चोट होते हुए भी उन्होंने हमारे सामने एक बार भी अपने पैर के घाव की ओर दृष्टि नहीं दी। उनकी शरीर के प्रति कितनी ममता थी इसका ज्ञान उनके पैर के घाव के प्रति उपेक्षा-भाव से स्पष्ट होता था। जब तक शरीर है, तब तक उसमें न्यूनाधिक ममता छोटे-बड़े सब में पाई जाती है, किन्तु महाराज की लोकोत्तर आत्मा थी। भेदविज्ञान के द्वारा चैतन्य ज्योतिर्मय आत्मा का वे सदा दर्शन करते थे। इसलिए शरीर की ओर उनका क्यों ध्यान जायगा। जैन पुराणों में सुकुमाल
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