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आगम
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रामचन्द्र के उद्यान में चातुर्मास किया था।
एक दिन अपराह्न में महाराज का केशलोंच हो रहा था। उनके समीप एक छोटा तीन. वर्ष की अवस्था वाला स्वस्थ सुरूप तथा नग्न मुद्रा वाला बालक महाराज को केशलोंच करते देखकर नकल करने वाले बंदर के समान अपने बालों को पकड़कर धीरे धीरे खींचता था। उस बालक को देखकर महाराज का मुख सस्मित हो गया और उन्होंने सहज आशीर्वाद दे उसके सिर पर अपनी पिच्छि से स्पर्श कर दिया। लोच के उपरांत जब महाराज का मौन खुला, तब मैंने महाराज से पूछा- “महाराज! इस बालक के मस्तक पर आपने पिच्छि का स्पर्श क्यों करा दिया ?"
जब वे कुछ न बोले, तब मैंने कहा -“महाराज ! मुनिपद को बालकवत् निर्विकार कहा गया है। स्वपक्षदर्शनात् कस्य न प्रीतिरुपजायते' - अपने पक्षवालों को देखकर किसे प्रेम उत्पन्न नहीं होता है। प्रतीत होता है, इसी कारण से उस बालक पर आपका वात्सल्य जागृत हो गया?"
महाराज के सस्मित मुख से प्रतीत होता है कि मौन द्वारा मेरा समर्थन किया।
आज का मनुष्य अपनी निर्भय स्थिति को सुरक्षित रखने के लिये उचित-अनुचित का विचार न कर स्वार्थसाधन को ही पराकाष्ठा माने हुए है। नैतिकता और सदाचार की मोहक बातें दूसरों को सुनाने के लिए है। आज का मानव एक ऐसी खाई के ऊपर से आँख पर पट्टी बाँधकर चल रहा है कि उसके गिरते ही उसकी हड्डी पसली टूटे बिना न रहेगी। डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में “घातक अस्त्र तथा संपत्ति राशि को ही हमने उन्नति का उपाय समझ लिया है। जो लोग हमारे लोभ एवं अन्याय के शिकार हैं, उनसे अपनी रक्षा करने के लिए हम नवयुवकों को ऐसी शिक्षा देते हैं, जिससे वे मरने-काटने तथा विनाश करने के लिए उत्साहित हों। यदि हमारे विचारों तथा व्यवहार में प्रबल परिवर्तन न हुआ, तो मनुष्य जाति का विनाश अवश्यंभावी है, वह भी किसी प्राकृतिक दुर्घटना अथवा रोग के कारण नहीं, वरन् इस सभ्यता के कारण, जो मानव तृष्णा एवं वैज्ञानिक प्रतिभा का एक विलक्षण संमिश्रण है।"(स्वतंत्रता और संस्कृति, पृष्ठ १६७-१६८) विश्वनंदन वन कैसे बनेगा?
आचार्यश्री ने कहा, “उन्नति की बड़ी-बड़ी योजनाओं के सुन्दर प्रस्तावों से विश्व का कल्याण नहीं होता। संसार के जीव अथवा उनके समुदाय रूप राष्ट्र तब ही सुखी होंगे, जब वे हिंसा, लंपटता, झूठ, चोरी तथा अधिक तृष्णा का त्याग करेंगे, तब ही आनन्द और शान्ति की प्राप्ति होगी।"
आचार्य महाराज तो अहिंसा की साधना के लिए मांस त्याग को आवश्यक मानते थे। यदि मांसाहार पाप नहीं, तो फिर और किस वस्तु को पाप कहा जा सकता है ?
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