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________________ आगम ३२२ अनावृष्टि आदि प्राकृतिक अस्त्रों द्वारा ऐसी भीषण त्राहि-त्राहि की स्थिति उत्पन्न कर दी, जिसकी भारतीय मस्तिष्क ने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। लोग कहते हैं कि ठोकर खाने के बाद मूर्ख की भी बुद्धि ठिकाने आ जाती है, किन्तु आश्चर्य है कि अहिंसा का दंभ रचनेवाले शासन की छत्रछाया में हिंसा की वृद्धि द्वारा प्राप्त दुष्परिणाम को देखते हुए भी अहिंसा की आराधना का विचार तक नहीं उत्पन्न होता है ? करुणाभाव करुणावान् जीवों की वृद्धि होने पर प्रेमपूर्ण परमाणुओं की राशि सर्वत्र होकर भूतल के अंश अंश में समृद्धि के कणों को भरती है, वह एक कल्याणकारी तथा आनन्ददायी वृत्त (Happy Circle) को उत्पन्न करती है, जिससे सर्वत्र समृद्धि का साज सजा हुआ दिखाई पड़ता है, किन्तु क्रूरता, हिंसा, संहार भावना के कारण घातक परमाणुओं के वातावरण में व्याप्त होने से निरोग व्यक्ति भी मृत्यु की गोद में पहुँचने लगते हैं, इसी प्रकार शासन की घातक प्रवृत्तियों और यम को आनन्दित करने वाली हिंसामयी योजनाओं के द्वारा वनस्पति के कण-कण की उर्वरा शक्ति न्यून होती जाती है। करुणामय शासन की अभयपूर्ण छाया में वनस्पति भी अपने उल्लास से धान्य, फलादि से परिपूर्ण विकास द्वारा आनंद को अभिव्यक्त करती है। करुणाप्रसार की योजना हो जैसे उन्नति की अनेक योजनाएँ बनाई जाती हैं, इसी प्रकार यदि पाँच वर्ष के लिए राष्ट्र कर्णधार हिंसादि पापाचारों को रोकने की योजनाओं को कार्यान्वित करें और रक्तरंजित भूतल को करुणा की पुण्य धारा से धोवें, तो अद्भुत विकास और अभ्युदयपूर्ण स्थिति का पुन: दर्शन होगा। प्रजा को प्राण देनेवाले प्रजापति ने भी यदि वधिक का वेष बना लिया हो, तो भूमि से समृद्धि के अधिदेवता कूच कर जाते हैं और वह स्थान चील, गिद्ध आदि मांसभक्षी जीवों के लिये विहारभूमि बन जाता है। अतएव कैसी भी कठिन अवस्था आवे, जैनधर्म संकल्पी हिंसा द्वारा प्राणपोषण के पथ का प्रदर्शन नहीं करेगा। स्वामी समंतभद्र ने लिखा है "यदि ऐसा दुर्भिक्ष आ जाय कि मानव के रूप में जीवन नहीं चल सकता और राक्षस की वृत्ति स्वीकार करना अनिवार्य हो जाये, तो अपने आत्म हितार्थ अहिंसा का पालन करते हुए समाधि-मरण स्वीकार कर लो।" नवधा-भक्ति का कारण आचार - शास्त्र पर आचार्य महाराज का असाधारण अधिकार था, यही कारण है कि सभी उच्च श्रेणी के विद्वान् आचार - शास्त्र की शंकाओं का समाधान आचार्य महाराज से प्राप्त करते थे । आचार्यश्री की सेवा में रहने से अनेक महत्व की बातें ज्ञात थी । यथाशास्त्र में कथित नवधा भक्ति के संबंध में आचार्यश्री ने कहा था, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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