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________________ ३२१ चारित्र चक्रवर्ती हिंसा है। अपने पेट के योग्य वे अनाज लेते हैं, उनका मनुष्यों की तरह संग्रह नहीं करते। उनका घात करने से कभी भी सुख नहीं होगा। खेती में तीन चतुर्थांश भाग पशुओं का रहता है। आखिर वे प्राणधारी प्राणी किस वस्तु पर जीवित रहेंगे? आज जो उपज एकदम कम होने लगी है, इसका कारण यथार्थ में पशु की हिंसा है। उनका नाश होने से उनका भाग कम उत्पन्न होने लगा है। पहले खेतों में जाकर अनाज खाते हुए आनंद से झूमते-झूमते हरिण आदि पशुओं की आत्मा अपना प्रेममय आशीर्वाद देती थी, इससे एक मन के स्थान में दस मन धान्य होता था।" कसाई सदृश क्रूर हृदय का व्यक्ति भगवती अहिंसा के अद्भुत सामर्थ्य को नहीं समझ पाते। खोटी राजपद्धति आचार्य महाराज ने पूछा, “क्या पहले भी कभी राजाओं ने आज की तरह बन्दर आदि अन्न खाने वाले जीवों की हत्या का काम करवाया था?" उन्होंने कहा “पहले राजा नीति से शासन करते थे। अनीति तथा अधर्म से राज्य करने वालों का शासन अधिक दिन तक नहीं टिकता है? आज की राजनीति में धर्म-अधर्म को एक साथ चलाया जा रहा है। दूध और जहर को एक साथ रखने से दूध भी जहर हो जाता है। हिंसा, झूठ, चोरी, अति-लोभ आदि पापों के छुड़ाने से राज्य अच्छी तरह से चलता है। सब जीवों का उद्धार करने वाला ही तीर्थंकर भगवान् का शासन है, वह किसी भी अवस्था में संकल्पी हिंसा की अनुमति नहीं देता है। पंच पापों का त्याग कराकर तीर्थंकर जग का उद्धार करते हैं।" दया पथ पर महाराज का विश्वास __ आचार्य महाराज का दृढ़ विश्वास है कि जीव-वध बंद करने से, पशुओं का बलिदान रोकने से पृथ्वी की उर्वरा शक्ति बढ़ेगी। इतना धान्य होगा कि लोग खा नहीं सकेंगे। जीवों का विनाश जितना अधिक किया जायगा, उतनी ही भूचाल, टिड्डीदल, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि की विपत्ति आयेगी। यदि सूक्ष्मता से पर्यालोचन किया जाय, तो प्रतीत होगा कि अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूचाल आदि के कारण वे प्रांत अधिक पीड़ित हुए तथा हो रहे हैं, जहाँ जीव-वध तथा क्रूरतापूर्ण आदि कार्यों का नग्न नृत्य हो रहा है। आज बंदर आदि निरपराध शाकाहारी जीवों का वध करके भारत शासन ने जितना अनाज-बचाया, उससे लाखों गुना धान्य शहर में असावधानी (Negligence) से नष्ट हो गया, सड़ गया और असम वितरण (Maldistribution) द्वारा खराब हुआ है। जिन जीवों का प्रकृति की गोद में पोषण हो रहा था, उन निर्दोष जीवों को हत्या हेतु सर्व-रक्षक शासन का कसाई या वधिक के समान कार्य करने का परिणाम यह हुआ, कि प्रकृति ने टिड्डीदल, भूचाल, अतिवृष्टि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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