SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चारित्र चक्रवर्ती पंचाध्यायी में लिखा है- “प्राणी यथार्थ में विश्व से भिन्न है, किन्तु समस्त विश्व को मोहवश अपनाता हुआ देखा जाता है।" मोह के कारण जब यह विविध पदार्थ - मालिका के साथ ममता के माध्यम से आत्मरूपता स्थापित करता है, तब उन पदार्थों के अनुकूल परिणमन पर यह आनन्द की कल्पना करता है और उनके विपरीत परिणमन पर दुःखी होता है । तत्वज्ञान के प्रकाश में ममता के केन्द्र इस जीव के समान उन सचेतन-अचेतन पदार्थो का स्वतन्त्र अस्तित्व है, अतः उनके अनुकूल-प्रतिकूल परिणमन पर इस ज्ञानी आत्मा को अपना सन्तुलन नहीं खोना था, किन्तु क्या किया जाय, यह मोह की वारुणी पान करने से विवेकरहित स्थिति को प्राप्त करता है। फलतः 'मेरा', 'मेरा' (मे-मे) कहने वाले 'अज' (बकरे) के समान कालरूप 'वृक' (भेड़िया) इसको मार डालता है । कवि कहता है. अशनं मे वसनं मे जाया मे बन्धुवर्गो मे । इति मे मे कुर्वाणं कालवृको हंति पुरुषाजम् ॥ व्यावहारिक दृष्टि से सोचा जाय, तो प्रतीत होगा कि यह मानव संग्रह की दूषित भावना से प्रेरित हो, इतना धन-वैभव एकत्रित करने में संलग्न रहता है, जितना यह सैकड़ों भवों में भी नहीं भोग सकेगा। इसे प्रारम्भ में अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति का ध्यान रहता . है, किन्तु जहाँ, आवश्यकता की पूर्तियोग्य परिस्थिति आई, वहाँ तृष्णा की बीमारी उसे घेर लेती है तथा अनिश्चित भविष्य की भीतिवश यह संग्रह - मूर्ति बनता चला जाता है। उस स्वार्थ के नशे में यह दूसरों के कष्टों की ओर तनिक भी दृष्टिपात नहीं करता है। दूसरों को अपने स्वार्थपूर्ति का साधन बनाने में इसे जरा भी संकोच नहीं होता है। यह सब होते हुए भी आकुलताओं की सीमातीत वृद्धि होने से इसका मन अशान्ति का केन्द्र बन जाता है। अविद्या के कारण यह जीव इस सत्य पर दृष्टिपात ही नहीं करता है कि परिग्रह की वृद्धि में इसकी अशांति बढ़ रही है तब फिर यह क्यों परिग्रह पिशाच से अपना पिण्ड छुटाने का उद्योग नहीं करता है ? पूज्यपादस्वामी ने इष्टोपदेश में लिखा है - तापकान्प्राप्तावतृप्ति - प्रतिपादकान् । आरंभ अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधीः ॥१७॥ अर्थ : विषयभोग प्रारम्भ में सन्ताप प्रदान करते हैं, क्योंकि उनकी उपलब्धि के लिए परिश्रम किया जाता है। अनुकूल सामग्री प्राप्त होने पर असन्तोष का भाव जागृत होता है, पश्चात् उन विषयों का नशा ऐसा चढ़ता है कि उनका त्याग करना अत्यन्त कठिन हो जाता है। कौन विवेकी व्यक्ति होगा, जो इन विषयों को अधिक सेवन करेगा ? कभी-कभी सत्पुरुषों का सुयोग प्राप्त होने पर यह मानव अपनी मलिन प्रवृत्तियों के दोषों को जान जाता है, किन्तु वे प्रवृत्तियाँ छूटती नहीं हैं। इस सम्बन्ध में वह शिथिलाचारी व्यक्ति कहता है - " मैं तो इन बुराइयों को छोड़ने को तैयार हूँ, किन्तु क्या करूँ, ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org चालीस
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy