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________________ ३०३ चारित्र चक्रवर्ती के स्थान में किया देखने की लालसा थी, कि गुरुभक्त सेठ चन्दूलालजी सराफ का दूसरा तार आया, उसमें लिखा था, "आचार्य महाराज ने अन्न ग्रहण कर लिया।" उस समय जो आनन्द आया, वह लेखनी द्वारा व्यक्त नहीं हो सकता, वाणी द्वारा भी प्रकाश्य नहीं है।बारामती का आनन्द तो अपूर्व था, जहाँ रक्षाबन्धन के दिन इस युग के अकम्पन ऋषिराज शांतिसागर महाराज ने तथा उनके अतिशयभद्र वीतरागी तपस्वी शिष्य मुनि नेमिसागरजी ने अन्नाहार लिया। ११०५ दिन बाद अन्नाहार आचार्य महाराज का अन्नाहार ११०५ दिनों के पश्चात् हुआ था। रोगी व्यक्ति को जब दो-चार दिन को भी अन्न नहीं मिलता है, तो वह निरन्तर अन्न को ही तरसता है। 'अन्नं वै प्राणाः' अन्न को तो प्राण कहा है। वैदिक साहित्य में अन्न को तो 'ब्रह्म' कहा गया है, उस अन्न का प्रतिज्ञापूर्ति पर्यन्त त्याग करके प्रतिज्ञापूर्ण होने पर ११०० दिन से अधिक काल व्यतीत होने के उपरान्त आहार करना असाधारण स्थान रखता है। आचार्यश्री की तपस्या उच्च रही है। वे यथार्थ में तपोधन' थे। अपूर्व दृश्य बारामती में एक पण्डाल में भी बड़ा चौका बनाया गया था। सौभाग्य से उसमें ही महाराज का आहार हुआ था। सभी लोगों को इस मंगल प्रसंग पर उत्तम पात्र की सेवा का अपूर्व सौभाग्य मिल सका। आहार के मंगलमय ऐतिहासिक अवसर पर आकाश से थोड़ी-थोड़ी जलबिन्दुओं की वर्षा हो रही थी, मानो मेघकुमार जाति के देव अपना आनन्द व्यक्त कर रहे हों। अद्भुत दृश्य था वह । प्रकृति भी पुलकित हो रही थी। __महान् तपस्वी की ११०० दिन बाद पूर्ण हुई सफलता पर आसपास के सभी लोगों में चर्चा थी। लोग महान् आचार्यश्री के तपःपूत जीवन के प्रति श्रद्धापूर्ण उद्गार व्यक्त करते थे। बम्बई आदि बड़े-बड़े नगरों के विचारकवर्ग बातें करते थे, तपस्वी का नाम ले इन्द्रियों का पोषण करने वाले साधु दुनिया भर में मिलते हैं, किन्तु ऐसे महात्मा कहाँ हैं, जिन्होंने अपने पवित्र धर्म और संस्कृति के संरक्षणार्थ प्रिय प्राणों की परवाह नहीं की, किन्तु जिनके पुण्य से उनकी तपस्या सफल हुई और जैनधर्म की पवित्रता अक्षुण्ण रह गई। लाखों सात्त्विक संस्कृति के समाराधकों ने साधुशिरोमणि को शतशः परोक्ष प्रणाम किया। हमारी भी इन महान् ज्योतिर्धर की सफल तपस्या को प्रणामांजलि है। इस धर्मसरंक्षण के कार्य में फलटण, कवलाना, गजपंथा के तीन चातुर्मास व्यतीत हुए तथा बारामती के १६५२ के चातुर्मास को सफलता का श्रेय प्राप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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