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प्रतिज्ञा
३०० मात्रा उतनी ही अधिक थी। धार्मिक जैन समाज के हर्ष की सीमा न थी। महाराज की तपस्या
वर्तमान शासन में जिनेंद्र की आज्ञा की पूर्ण रक्षा होना अलौकिक बात है। हम तो इस प्रसंग में सम्पूर्ण बातों से परिचित रहे हैं। उस निकट परिचय के आधार पर यह कहना पूर्णतया सत्य है कि इस सफलता का श्रेय उन परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती ऋषिराज को है, जिन्होंने जिनशासन के अनुरागवश तीन वर्ष से अन्न छोड़ रखा था। यह उनकी प्रवचनभक्ति तथा प्रवचनवत्सलत्व भावना का विशेष प्रभाव था, तथा हजारों, लाखों नरनारियों की पंचपरमेष्ठी की भक्ति का प्रसाद था, जो धर्म की नौका बच गई।
उस समय आचार्य महाराज के जिनशासन में प्रगाढ़ भक्तिपूर्ण शब्द समझ में आए, जो उन्होंने कई बार कहे थे कि "अभी धर्म-ध्वंस का समय नहीं आया है। अभी हजारों वर्ष पर्यन्त जैनधर्म जीवित रहेगा।"उनके मुख से ये भी शब्द सुने थे कि "इससंकट को दूर होते देर न लगेगी।"इस धार्मिक सफलता पर जिन्हें आनन्द हुआ, उन्होंने पुण्य का संचय किया होगा। कुछ ऐसे भी व्यक्ति रहे जिनको असह्य वेदना हुई। किन्तु अब यह ऐसी वस्तु नहीं है, जो कोई नेता या और दूसरों के द्वारा बदली जा सके या अखबारी आन्दोलन के द्वारा उलटाई जा सके। उन श्रावक कुल संभूत व्यक्तियों की वृत्ति पर दया आती है, जो आचार्य परमेष्ठी के विरोध में जाल बुनते रहे थे, किन्तु स्वयं वे उसमें ही आक्रान्त हो गए। जिनागम में जो बात नहीं कही गई है, उसे जिनागम का अंग बताना श्रुत का अवर्णवाद है, जिससे दर्शनमोह का आम्रव होता है।
ऐसा अनुभव में आता है कि किन्ही व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण सदा शासन सत्ता की हाँ में हाँ मिलानेवाला वर्ग तैयार हुआ करता है। धर्मभक्ति से पराङ्गमुख हो राष्ट्रभक्ति वाले भ्रांत भाइयों ने अपने ही धर्म के कार्य को नष्ट करने को क्या-क्या विनिन्दित कर्म नहीं किये ? यह देख कलिकाल की महिमा याद आ जाती है। इस विकट परिस्थिति में आचार्य महाराज की आध्यात्मिक साधना तथा अन्य जिन-धर्म सेवकों की भक्ति ने संकट से जिनमंदिरों की शुद्धता की रक्षा की। पं. आशाधरजी ने जिनमंदिर की विशेषता लिखी है-“दलितकलि-लीला-विलसितम्"इनके द्वारा कलिकाल की लीला का विलास नष्ट हो जाता है। बहुत से विघ्नकारी तो वे लोग थे, जो कभी जिनमंदिर जाकर दर्शन भी नहीं करते थे, उन्हें दूसरों के दर्शन की फिकर थी। यह तीव्र कषाय का कार्य है। सफलता का श्रेय
आचार्य महाराज को केस की सफलता का तार भेज दिया गया। ता. २४ जुलाई की रात्रि को बम्बई के श्री चन्द्रप्रभ-विद्यालय में सभा हुई। उसमें अनेक धर्मबन्धुओं ने भाषण द्वारा सेवा करने वाले भाइयों के कार्य की सराहना की। हमने कहा था कि “इस
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