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चारित्र चक्रवर्ती तुड़वाकर वहाँ अजैनों को जबरदस्ती घुसेड़ा है। यह कलेक्टर का कार्य अन्यायपूर्ण है।
श्री दास अपनी बात कह ही रहे थे कि जज गजेन्द्र गड़कर महाशय ने पूछा-"श्री दास! यह बताइये क्या आप वर्णाश्रम धर्म मानते हैं ? यदि हाँ, तो आप अस्पृश्यों के प्रति मन्दिर-प्रवेश प्रतिषेध की नीति को अवश्य मानते होंगे?"
सम्म बाबू ने उत्तर दिया-“मैं तो जैन नहीं हूँ, मुझे नहीं मालूम जैन लोग वर्णाश्रम व्यवस्था मानते हैं या नहीं?"
दास बाबू ने आगे यह कहा-“हमने जैनमंदिर में घुसने वालों को अजैन समझकर रोका है, हम नहीं जानते वे हरिजन हैं या सवर्ण हैं।"अपने विषय को स्पष्ट करते हुए उन्होंने पटना हाईकोर्ट के एक पुराने मुकदमे का उल्लेख करते हुए कहा “एक बार बिहार प्रांत के राजगिरि ग्राम का मामला अदालत में पहुँचा। बात यह थी कि राजगिरि में जो गरम पानी के झरने हैं, वे हिन्दुओं के अधिकार में थे। मुसलमान लोग वहाँ अधिकार जमाना चाहते थे। अतः उन्होंने अपनी ओर से प्रमाण पेश किए थे कि उन लोगों ने बिना रोक-टोक के कुंडों में स्नान किया है। उसके जवाब में हमने कहा था"नहाने वालों के मुख पर मुसलमान नहीं लिखा था, जिससे हम यह जानते कि ये मुसलमान लोग यहाँ आए हैं। हमने उनको हिन्दुओं के समान ही समझ कर प्रवेश करने दिया था। इसी प्रकार जैन मंदिर में यदि कभी हिन्दू भी गए हैं, तो हमने उनको जैन समझ कर ही जाने दिया है। अजैन जानकर नहीं!"
इस पर जस्टिस गजेन्द्र गड़कर ने कहा-“श्रीयुत दास ! यह बात यहाँ नही लागू होती है। अकलूज एक छोटी-सी बस्ती है। वहाँ सब लोग एक-दूसरे को पहचानते हैं कि कौन किस जाति का है आदि, अतः अकलूज के विषय में यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रवेश करने वाले अजैनों को हमने जैन जानकर ही आने दिया।
श्री दास ने अपना विषय स्पष्ट करते हुए कहा-“यदि हिन्दू लोग किसी विशेष जैन मंदिर में अधिकार अथवा रिवाजपूर्वक आते रहे हैं, तो वह अधिकार हरजिनों को भी प्राप्त होगा यह बात हमें मान्य है। किन्तु यदि इस मन्दिर में हिन्दुओं को भी अधिकार नहीं रहा है तो हरिजनों को भी अधिकार नहीं रहता है।" गंभीर स्थिति
इस प्रकार बहस चल रही थी कि न्यायाधीश जलपान के लिए दो बजे उठ गए। उस समय न्यायाधीश का रंगढंग ऐसा दिखा कि अब मामला खारिज होने में देरी नहीं है। जजों के प्रश्नों के आगे जैनों के तरफ का उत्तर असरकारी नहीं दिखता था। सैकड़ों जैन भाइयों के चेहरों पर उदासी छा गई। हमारे मन में इस बात की चिन्ता थी कि कहीं अपने विरुद्ध निर्णय हुआ, तो इसका आचार्य महाराज पर
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