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प्रतिज्ञा
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२६ जनवरी, सन् १६५० में भारतीय संविधान गणतंत्र भारत में प्रचलित हुआ । उसके नियम नं. २५ (२ब) तथा नियम नं. २६ तथा २६ के अनुसार हम इस निर्णय पर पहुंचे कि भारतीय संविधान के अनुसार जैनमंदिर में इतर संप्रदाय वाले को कोई अधिकार नहीं प्राप्त होता है । इस सम्बन्ध में जब हमने तत्कालीन, कांग्रेस अध्यक्ष श्री पुरुषोत्तमदास टंडन से दिल्ली पहुंचकर कांग्रेस भवन में चर्चा की, तब उन्होंने कहा- “मन्दिर कोई क्लब या खेल का स्थान नहीं है, जहाँ हर कोई आवे या जावे। मन्दिर तो आराधना का स्थल है। शैव मंदिर में शाक्त सम्प्रदाय वालों को घुसने का कैसे अधिकार होगा ? इसी प्रकार जैनमन्दिर में दूसरों को कभी भी अधिकार नहीं हो सकता है।
अनेक हाईकोर्ट के न्यायाधीशों से हमने चर्चा की। उसमें हमारे दृष्टिकोण का ही समर्थन प्राप्त हुआ।
एक प्रमुख न्यायाधीश ने कहा- जिस सम्प्रदाय की पूजा का स्थान है, वहाँ दूसरे सम्प्रदाय वाले को अधिकार नहीं हो सकता। इंग्लैण्ड में ऐसे मामले चल चुके हैं। उनमें यह निर्णीत हुआ कि रोमन कैथलिक वर्ग के गिरजा में प्रोटेस्टेंट नाम के दूसरे वर्ग को कोई अधिकार नहीं है, भले ही बहुमत उनका समर्थक हो ।
विधान-शास्त्र के प्रकांड विद्वान् तथा देशबन्धु श्री सी. आर. दास के छोटे भाई प्रसन्नरंजन दास को हमने पत्र देकर उपरोक्त दृष्टिकोण को प्रश्नोत्तर के रूप में भेज कर उनका विचार जानना चाहा। उस समय उन्होंने हमारे प्रश्न को अत्यन्त महत्वपूर्ण बताते हुए आगामी अवकाश मिलने पर उत्तर देने का वचन दिया था । '
एक बार भारत सरकार के मुख्य वकील (Attorney General) श्री मोतीलाल सीतलवाड़ से लगभग आध घंटे तक नई दिल्ली में चर्चा हुई थी । मेरे साथ मेरा छोटा भाई एडवोकेट अभिनन्दनकुमार भी था। श्री सीतलवाड़ से ज्ञात हुआ था कि इस सम्बन्ध
स्पष्टीकरण के लिये सुप्रीम कोर्ट (सर्वोच्च न्यायालय) में कार्यवाही की जा सकती है । साधारण वकील लोग यही सोचा करते थे कि यह मामला हाईकोर्ट में भी नहीं पेश हो सकता है, इसलिए मैंने श्री सीतलवाड़ से पूछा - " सुप्रीमकोर्ट में इस सम्बन्ध में कैसे विचार हो सकता है ?” तब उन्होंने बताया था कि यह प्रश्न मौलिक अधिकार (Fundamental rights) से संबंधित है, इसलिये यह सीधे सर्वोच्च न्यायालय में पेश हो
1.
Patna 6th Sep. 1950.
Dear Mr. Diwaker, I am at present too much busy to answer the very important question which you have put to me. I shall have no time till the middle of October. If your should then write to me, I shall endeavour to do my best to give you satisfactory reply.
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