________________
२८६
चारित्र चक्रवर्ती उनके निवासस्थान दुर्ग पहुंचे थे। इस प्रकृति के विरुद्ध प्रवृत्ति के फलस्वरूप लगभग २ माह पर्यन्त हम बीमार रहे थे।
डॉ. राजेन्द्रप्रसादजी ने एक महत्वपूर्ण पत्र द्वारा सरदार वल्लभभाई पटेल से उचित कार्य करने के लिए प्रेरणा की थी। श्री सेठ बालचन्द हीराचन्द, बम्बई ने भी महत्वपूर्ण उद्योग किया था। इस प्रकार धार्मिक बहुसंख्यक जैनसमाज आचार्य महाराज की इच्छापूर्ति के विषय में शक्तिभर प्रयत्न कर रही थी। दूसरे विचार वाले थोड़े-से व्यक्ति सुधार के नाम पर महाराज के मार्ग में विघ्न उपस्थित करने में लगे थे। __ आचार्य शान्तिसागर महाराज की शरीरस्थिति चिन्ताजनक होती जा रही थी, किन्तु उनका निश्चय मेरुसदृश अचल था। महाराज ने कहा कि - "राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री श्री नेहरू इस प्रकार की सूचना निकाल दें कि जैनमन्दिर में दूसरे धर्मवाले स्थानीय जैनपंचायत की आज्ञा लेकर ही जा सकेंगे तथा बिना अनुज्ञा प्राप्त किये उनको अधिकार न होगा।" इस सम्बन्ध में मैंने राष्ट्रपति को ५ अगस्त, सन् १९५० को पत्र लिखा था।
राष्ट्रपतिजी की ओर से २१ अगस्त को यह उत्तर प्राप्त हुआ,“इस विषय में राष्ट्रपति की हैसियत से वे प्रत्यक्ष रूप में कुछ नहीं कर सकेंगे। इस सम्बन्ध में आपको भारत सरकार से निवेदन करना चाहिए।" १ ।
राष्ट्रपतिजी की ओर से प्राप्त पत्र इस प्रकार था : Governments House, New Delhi.
21st August, 1950 Dear sir, your leter dated the 5 th August, 1950, has been received by the President. He regrets very much that it is not possible for him to issue the kind of statement which you want him to do. It is a matter with which as President he cannot directly deal. If anything has to be done you have to approach the Government.
Your faithfully,
Sd/-Chakradhar Saran Private Secretary. To, Shri S.C. Diwaker, Hony. Secretary Jain Political Rights preservation Committee, Seoni (M.P.)
१. इसके आगे का प्रकरणकि केन्द्रिय सरकार आचार्यश्री के पक्ष में कैसे आई?'चूंकि पंडितजी किन्हीं कारणों से नहीं देपाये, अतः उसे ही हम यहाँभविजनों के बोधनार्थपुस्तकके अंत मेंपरिशिष्ट अंतरे के अंतर्गत प्रतिज्ञा-२शीर्षक से आचार्यश्री के पक्ष में दिये गये बंबई हाईकोर्ट के निर्णय के हिंदी अनुवाद सहित आचार्य वर्द्धमानसागरजी व अन्यआचार्यों, मुनिवर्यों व विद्वानों के परमर्शानुसार सन् १९५१ के जैन बोधक के श्री आचार्यशांतिसागर विशेषांक से लेकर दे रहे हैं, क्यों कि बगैर इसके इस विषय से संबंधित इतिहास अधूरा सा प्रतित होता है। इसीके साथ हम आचार्य विद्यासागरजी द्वारा विरचित शांतिसागर विनयांजलिव आचार्यशांतिसागर जी के सुशिष्य मुनिवर्य कुंथुसागर विरचित शांतिसागरचारित्र(संस्कृत भाषा में छंद बद्ध रचना) भी प्रकाशित कररहे हैं ।
- संयोजक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org