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________________ चौंतीस चारित्र चक्रवर्ती आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि पवित्र कार्य में विघ्न प्रायः आया करते हैं। उन्हें आमंत्रण देकर बुलाने की आवश्यकता नहीं होती । इस आचार्य वाणी की सत्यता का हमें पर्याप्त मात्रा में 'अनुभव हुआ। जब हम लेखन कार्य में अत्यन्त संलग्न थे, तब जिनवाणी जीर्णोद्धारक संघ मंत्री जी ने हमें सूचना दी कि यह कार्य आचार्य महाराज को पसंद नहीं है, इसलिए आप ग्रंथ निर्माण का कार्य बन्द कर दीजिये। हमने सोचा कि यह श्रम अर्थ की प्रेरणा के स्थान में अंतःकरण के प्रेम, श्रद्धा और भक्तिवश किया जा रहा है, इसलिये उसे अविश्रांत रूप से जारी रखना ही ठीक होगा। फिर भी व्यवस्था की बात मन में विचार उत्पन्न करती थी । ऐसे अवसर पर हमारे गुरू- भक्त छोटे भाई ज्ञानचंद दिवाकर तथा शांतिकुमार ने कहा - "इस संबंध में यदि अन्यत्र से व्यवस्था न हुई तो अपने घर से ही इस ग्रंथ का प्रकाशन करेंगे ।" दिगंबर जैन महासभा की प्रबंधकारिणी की एक बैठक में यह प्रस्ताव पास हुआ था कि हमारे ग्रंथ निर्माण के अनंतर महासभा उसे आचार्य श्री की हीरक जयंती के अवसर पर उनके कर कमलों में अर्पण करेगी। जब मैंने ग्रंथ प्रकाशनार्थ आर्थिक व्यवस्था के विषय में प्रमुख महोदय को पत्र दिया तो ऐसा उत्तर नहीं आया जो हमें निःशंक बनावे । पश्चात् की प्रवृत्तियों से तो इस परिणाम पर पहुंचना पड़ा कि इस दिशा में आशान्वित न होना ही समझदारी की बात होगी । कोई कोई गुरू भक्त कहते थे - “ आपने जैन - शासन सदृश महत्वपूर्ण ग्रन्थ तथा प्राकृत भाषा की प्रांजल तथा दो हजार वर्ष प्राचीन महान कृति 'महाबंध' प्रथम खंड की टीका को दक्षिण से लाकर प्रसिद्ध व्यवसायी सेठ शांतिप्रसाद जी जैन की भारतीय ज्ञानपीठ, काशी को प्रकाशनार्थ अमूल्य प्रदान की, तो वह कृतज्ञ संस्था आचार्य श्री के जीवन चरित्र को प्रकाशित करने में कृतार्थता का अनुभव करेगी। शांतिप्रसाद जी की संस्था द्वारा शांतिसागर स्वामी संबंधी रचना का प्रकाशन पूर्णतया समंजस ही है ।" वह विचार अनुपयोगी दिखाई दिया, क्योंकि केवल ज्ञानप्रसाद तथा लोक कल्याण की कामना से प्रदत्त सामग्री के प्रतिफल स्वरूप जो व्यथा वर्धक पुरस्कार प्राप्त हुआ उससे ज्ञानपीठ की ओर पीठ करना ज्ञान पूर्ण लगा । हमें तो यह जानकर आश्चर्य हुआ कि प्रकांड दार्शनिक रायबहादुर प्रिंसिपल ए. चक्रवर्ती, एम.ए., आई. ई. एस., मद्रास द्वारा अंग्रेजी समयसार तथा कुरल काव्य, अमूल्य दिए जाने पर उक्त संस्था से उन्हें हमारी तरह पारितोष के स्थान में परिताप प्राप्त हुआ। ऐसो और भी उज्जवल साहित्य सेवियों की व्यथा की कथा है । यदि दानवीर संस्थापक जी स्वयं ध्यान देकर संस्था को अकलंक बनाने का प्रयत्न करें, तो समंतभद्र बात होगी। धीरे-धीरे वह दिन भी आ गया, जब अंतः करण ने चरित्र निर्माण कार्य की समाप्ति पर संतोष और प्रसन्नता का अनुभव किया । अब तो प्रकाशन का प्रश्न प्रमुख बन गया। कुछ श्रीमानों ने हमें लिखा कि- “यदि आप पर्युषण पर्व में हमारे यहाँ धर्मोपदेश के हेतु आवें, तो अर्थ की व्यवस्था हो जाएगी ।" मैं विचार में पड़ गया, क्योंकि हृदय आचार्य महाराज के समीप पहुंचने की सलाह देता था, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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