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________________ २४१ चारित्र चक्रवर्ती सभी समान हैं। इसको सोनागिरि कहने का कारण सम्भवतः यह रहा होगा, कि यहाँ आकर नंगकुमार, अनंगकुमार आदि मुनियों ने अपने जीवन को सुवर्ण के समान ऐसा शुद्ध बना लिया, कि आगामी उनमें कर्म रूपी कालिमा का सम्पर्क नहीं होगा। यहाँ से मुनियों का जीवन सुवर्ण सम शुद्ध बना आचार्य संघ ने जब इस निर्वाणभूमि का दर्शन किया तब सभी मुनियों एवं श्रावकों को बड़ा आनन्द आया तथा महान् शान्ति प्राप्त हुई। संघ के पधारने पर हजारों नरनारियों की ओर से क्षेत्र में बड़े भारी धार्मिक समारम्भ का आनन्द दिखाई दे रहा था। सोनागिरि में कोई विशेष समारम्भ जब कभी होता है, तो लगभग पन्द्रह-बीस हजार जैन भाइयों का समुदाय इकट्ठा हो जाना साधारण-सी बात हो जाती है, बुन्देलखण्ड, ग्वालियर आदि के समीपवर्ती जैन बंधुऐसे अवसर पर आकर पुण्य संचय करने को सदा अग्रसर रहा करते हैं, तब फिर जहाँ दिगम्बर गुरुओं का संघ आचार्य शान्तिसागर महाराज सदृश गुरुदेव के साथ पहुंचा था, उस सोनागिरि में अपार जनसमुदाय का आ जाना साहजिक था। चार व्यक्तियों की निर्वाण दीक्षा ___ आचार्यश्री की सोनागिरि यात्रा धार्मिक इतिहास को चिरस्मरणीय वस्तु बन गई, कारण अगहन सुदी पूर्णिमा को नौ बजे सवेरे ऐलक चतुष्टय- श्री चन्द्रसागरजी, श्री पायसागरजी, श्री पाश्वकीर्तिजी, श्री नमिसागरजी को आचार्य महाराज ने निर्वाण दीक्षानिर्ग्रन्थपद प्रदान किया। पार्श्वकीर्तिजी का नाम मुनिराज कुंथुसागर रखा गया था। चार महाभाग्यों का एक साथ दिगम्बर दीक्षा धारण करना इस पंचमकाल की वर्तमान स्थिति में चौथे काल का दृश्य उपस्थित करता था। विचारपूर्वक व्रतदान कोई शंकाशील बन्धु कदाचित् यह सोचे, क्या लगता है, किसी को भी वस्त्र छोड़ने की दीक्षा दे दी, यह संदेह इस प्रसंग में अयोग्य है। आचार्य महाराज के पास से दीक्षा पाना बड़ा कठिन काम था। अनेक लोग उनके पास उत्साह लेकर व्रत मांगने आते थे, किन्तु महाराज पात्र की योग्यता देखकर ही व्रत देते थे, अन्यथा इंकार कर देते थे। एक समय मेरे समक्ष एक धर्मात्मा भाई, महाराज के पास आया था। उसने जीवन भर के लिए ब्रह्मचर्य व्रत मन, वचन, काय से ग्रहण करने की इच्छा प्रगट की। विनयपूर्वक व्रत मांगा। आचार्यश्री ने उसके विषय में विचारकर व्रत देते समय काय से कुशील त्याग काहीव्रत दिया था। एक तरुण आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लेने उनके पास पहुंचा। अत्यधिक आग्रह होने पर महाराज ने उसे केवल एक वर्ष को ही व्रत दिया था। एक व्यक्ति मुनि की दीक्षा मांगने आया। उस व्यक्ति के चरित्र से वे परिचित थे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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