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________________ चारित्र चक्रवर्ती जबलपुर में महाकौशल प्रांत के जैनियों का सदा आनाजाना लगा रहता है, इससे वहाँ संघ के विराजने से प्रांत भर के लोगों ने लाभ लिया। सिवनी के जिनालय की चर्चा एक दिन मैंने आचार्य महाराज को सिवनी के विशाल जैनमंदिरों का चित्र दिखाया। उस समय आचार्यश्री ने कहा, "जबलपुर से वह कितनी दूर है ?" मैंने कहा, "महाराज, ६५ मील पर है । " २१७ महाराज बोले, "हम जब जबलपुर आये थे, तब तुमसे परिचय नहीं था, नहीं तो सिवनी अवश्य जाते । " 66 मैंने कहा, "महाराज ! उस समय तो मैं काशी में रहकर विद्याभ्यास करता था, इसी से आपसे वहाँ पधारने की प्रार्थना करने का सौभाग्य नहीं मिला । " मैंने मंदिर के चित्र को जब बताया था, तब अधिक प्रकाश न था, इस कारण एक व्यक्ति ने मुझे कहा, ' "आप महाराज को दुबारा अच्छे उजेले में यह सुन्दर फोटो बता देना । " मैंने ऐसा ही किया, तब महाराज बोले, “बार- बार क्या बताते हो। हम जिस चीज को एक बार देख लेते हैं, उसे कभी नहीं भूलते हैं।” तब स्मरण आया कि इसी कारण महाराज को अनेक शास्त्रों की असाधारण धारणा हो गई है। महाराज एक बार बताते थे 'हम रात्रि को तत्त्वों के बारे में खूब विचार करते रहते हैं ।' उसी तत्त्वचिंतन के पश्चात् जो अनुभवपूर्ण वाणी महाराज की निकलती है, वह बड़े-बड़े विद्वानों को मुग्ध कर देती है। एक बार महाराज जबलपुर के विशाल हनुमानताल के बारे में कहते थे, "वह मंदिर किले के सदृश है ।” मढ़ियाजी का प्रशान्त वातावरण भी उनको अनुकूल लगता था । संस्कारधानी को संस्कारित कर प्रस्थान जबलपुर में जिनधर्म की प्रभावना के उपरान्त विहार कर महाराज ने सहजपुर ग्राम को अपने चरणों से पवित्र किया। वहाँ फाल्गुन वदी तेरस को ऐलक पार्श्वकीर्ति का, जिनको मुनि होने पर लोग कुंथूसागर महाराज के नाम से याद करते हैं, सज्जातित्व आदि पर विवेचन हुआ । स्वच्छंदाचरणरूपी व्याघ्र से समाज के रक्षक कोई व्यक्ति यह कहे कि उनको तो आत्मा की चर्चा करनी चाहिए थी, इन सामाजिक विषयों में साधुओं को पड़ने की क्या जरूरत है ? कोई-कोई साधु अपने को उच्च स्तर का बताने के उद्देश्य से सामाजिक हीनाचार (जैसे विधवा विवाहादि ) का विरोध नहीं करते हैं और जनता की प्रशंसा की अपेक्षा करते पाये जाते हैं। आचार्य महाराज का इस प्रवृत्ति को समर्थन नहीं प्राप्त था । उनका चिंतन इस प्रकार था, जिन समाज हित की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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