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प्राक्कथन हैं, तो १० जाप ऋषिमंडल की दे लेते हैं, फिर कितने ही पृष्ठ लिख लेते हैं। रात्रि को सोने के पूर्व कोई सुंदर विषय से अंत करते हैं ताकि रात्रिभर दिमाग उसी में रहा करे व कल्पनाएं बढ़ चलें। लुई फिशर की पुस्तक, जो गांधीजी पर है, उसके आधार पर लिखते हैं।"
विचार-विमर्श के बाद इस ग्रंथ का नाम मात्र चारित्र चक्रवर्ती रखना ही उपयुक्त समझा गया, कारण कि यह नाम आकर्षक होने के साथ परमपूज्य आचार्य महाराज का पर्यायवाची बन चुका था, अतः किसी अन्य साधुराज के बारे में भ्रम की स्थिति पैदा होने का प्रश्न ही नहीं था।
ग्रंथ-लेखन के बाद मुद्रण की भी विकट समस्या रही। इस ग्रंथ के प्रथम संस्करण के प्रकाशक होने का पुण्य सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। प्रथम संस्करण में संलग्न फोटो को प्रिंटिंग, बाईंडिंग आदि हेतु कितने ही बार मुझे बंबई जाना पड़ा। प्रयत्न था कि मार्च १६५३ के भगवान् बाहुबली के महामस्तकाभिषेक के अवसर पर पुस्तक छप कर वहाँ पहुँच जावे। दो - दो बजे रात तक स्वयं पंडितजी जबलपुर में प्रूफ रीडिंग किया करते थे । जबलपुर से बंबई २००० प्रतियों हेतु छपे पृष्ठों को बम्बई ले जाकर बाईंडिंग आदि का कार्य करना भी कुछ कम दुष्कर नहीं था। इस दरम्यान बंबई में ही मेरी मुलाकात जर्मनी से विश्व जैन मिशन, अलीगंज के निमंत्रण पर आये विद्वान लूथर बैडल से हुई और यह परिचय अत्यंत निकट मित्रता में हो गया। मैं अपने साथदौ सौ प्रतियाँ लेकर श्रवणबेलगोला पहुँचा। मेरे पहुँचने के एक दिन बाद पूज्य पंडितजी के हाथों मैंने जब ग्रंथ की प्रति दी तो ग्रंथ को देखकर उन्हें बेहद प्रसन्नता हुई जो स्वाभाविक थी। मुझे आशीर्वाद देते हुए कहा था-“यह तुमने बहुत पुण्य-कार्य किया है।"
दिनांक ४.३.५३ को प्रातः श्रवणबेलगोला के मठमंदिर में समस्त चार संघ समाज में आचार्यरत्न पूज्य देशभूषणजी महाराज एवं संघस्थ साधुओं की उपस्थिति में ग्रंथ विमोचन का कार्य हुआ। इस अवसर पर जर्मन विद्वान लूथर बेंडल ने अपने भाषण में
1. The Harder the thing is to do.
The greater the joy when it is done. The greater the burden you bear.
The greater the joy when it is done. 2. “It was on my way to Shravanbelgola where I had an opportunity to attend the puja of Gommateshwara Statue that I heard first of Saint Shantisagarji who was consideard as the most outstanding personality of Jainism in our days. It was my friend A.K. Diwaker who told me so and his brother Sumerchand Diwaker author of a voluminous work on the great Saint was of the same opinion. So I longed to have an encounter with this great personality.”
-Prof. Lother Wendel: A Transcendental Saint,
जैन गजट, श्रद्धांजलि विशेषांक, पृष्ठ २५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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