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________________ १६० चारित्र चक्रवर्ती मुख्य प्रश्नकर्ता का गौरव जिन श्रेणिक महाराज (विम्बसार) को प्राप्त हुआ, उनकी राजधानी यही स्थान थी। यहां पंच पहाड़ी की वंदना की जाती है। राजगृही के पूर्व में . चतुष्कोण आकार वाला ऋषि शैल है। दक्षिण में वैभारगिरि, नैऋत्य दिशा में विपुलाचल में दोनों त्रिकोण है, पश्चिम, वायव्य तथा उत्तर दिशा में धनुषाकार छिन्न नाम का पर्वत है। ईशान दिशा में पांडू पर्वत है। पांचों ही पर्वत कुश समूह से वेष्टित हैं। यहां वासुपूज्य भगवान के सिवाय शेष २३ तीर्थकरों का समवशरण आया था। हरिवंश पुराण (३-५२) में ऐसा भी लिखा है कि : पंचशैलपुरं पूतं मुनिसुव्रतजन्मना अर्थ : यह पंच शैलपुर राजगिरि भगवान मुनिसुव्रत के जन्म के द्वारा पवित्र है। भगवान महावीर तीर्थंकर को ऋजुकूला नदी के तीर पर, जो जूंभिक ग्राम के पास थी, वैसाख सुदी १० को केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। इसके पश्चात् ६६ दिन तक भगवान की दिव्य ध्वनि नहीं हुई। अनंतवीर्य भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद धर्मतीर्थ की उत्पत्ति होनी चाहिये थी, किन्तु दिव्यध्वनि नहीं खिरी। राजगिरि को प्रथम धर्मदेशना का सौभाग्य मिला। विपुलाचल पर दिव्यध्वनि भगवान महावीर स्वामी ने धर्मतीर्थ का उपदेश कहाँ दिया ? इसके समाधान में जयधवलाटीका में लिखा है कि जब महामंडलीक श्रेणिक महाराज अपनी चेलना रानी के साथ सकल पृथ्वीमंडल का उपभोग करते थे, तब मगधदेश के तिलक के समान राजगृह नगर के नैऋत्य दिशा में स्थित, सिद्ध तथा चारणों के द्वारा सेवित विपुलाचल पर्वत पर बारह गणों-सभाओं से वेष्टित भगवान महावीर ने धर्मतीर्थ का कथन किया। अर्थकर्ता तिलोय पण्णत्ति में लिखा है कि देव और विद्याधरों के मन को हरण करने वाले, सार्थक पंचशैल नगर-राजगृही में पर्वतों में श्रेष्ठ विपुलाचल पर श्री वीर जिनेन्द्र क्षेत्र की अपेक्षा परमागम रूप अर्थ के कर्ता हुए। भगवान की ६६ दिन पर्यन्त वाणी नहीं खिरी। अन्त में श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के प्रभात में विपुलाचल पर धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति हुई। हरिवंश पुराण में भी लिखा है कि भगवान ६६ दिन पर्यन्त मौन के साथ विहार करते हुए जगत में विख्यात राजगृह नगर को प्राप्त हुए। वहां वे विपुल श्री संपन्न विपुलाचल पर्वत पर लोगों को उपदेश देने के लिए चढ़े, जैसे सूर्य उदयाचल पर आरोहण करता है। राजगिरि १. वासुपूज्य जिनाधीशादितरेषां जिनेशिनां।। सर्वेषां समवस्थान : पापनोरुवनांतराः ॥३-५७, हरिवंशपुराण॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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