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चारित्र चक्रवर्ती पंच नमस्कार मंत्र की मन में जाप कीजिए। आचार्य महाराज का जब बने तब आकर दर्शन कीजिए। ऐसा करना आपके लिए कल्याणकारी रहेगा।" णमो सिद्धाणं ___ यह सुनकर महाराज बोले-"हम जानते हैं इनको। सेठ जी को केवल णमो सिद्धाणं' का जाप करना चाहिए। यह सरल होगा और श्रेष्ठ भी है। इससे सब दुःख दूर होते हैं।" सेठ बालचंद ने अपने अस्पष्ट शब्दों द्वारा गुरु वाणी को स्वीकार किया।
इससे यह भी ज्ञात हुआ कि महाराज की भक्ति सिद्ध भगवान पर अत्यधिक है। वह सिद्ध भक्ति ही तो उनको सिद्ध क्षेत्र पर ले आई जिसके प्रसाद से शिखरजी में लाखों लोग आ गए। कुंदकुंद स्वामी ने समयसार के मंगलाचरण में इन्हीं सिद्धों को नमस्कार किया है। जब आचार्य महाराज ने सन् १९५५ में सल्लेखना ली थी तब वे “ॐ सिद्धाय नमः"का जाप करते थे। सल्लेखना के ३६ वें दिन स्वर्ग प्रयाण के पूर्व उनके मुख से "ॐ सिद्धाय नमः"शब्द निकले थे। धर्मपुरी व उसका अद्भुत सौंदर्य ।
आचार्यश्री के आने के बाद अगणित मनुष्यों ने मधुवन के जंगल को एक विशाल धर्मपुरी का रूप दे दिया। जहां देखो, वहां आदमी ही आदमी दिखताथा। सब स्थान भर गए थे। व्यवस्थापकों को आशा नहीं थी कि इतने लोग आवेंगे, किन्तु आचार्य महाराज के नाम का जादू था। लोग सोचते थे तीर्थराज की वंदना होगी। न सिर्फ तीर्थराज की वंदना होगी, अपितु पंचकल्याणक महोत्सव का लाभ लेंगे और पंचमकाल में चतुर्थकाल के साधुओं सदृश आत्मतेजधारी आचार्यदेव का दर्शन भी करेंगे। जैन समाज के प्रमुख श्रीमान्, विद्वान्, त्यागी, लोकसेवक, कलाकार पहुंचे थे।
चारों ओर जिनधर्म की ही महिमा सुनाई पड़ती थी। फाल्गुन का मास होने से ऋतुराज ने वनश्री को सौन्दर्य समन्वित कर दिया था। भिन्न-भिन्न देश के व्यक्तियों के विविध वर्णों की वेशभूषा से नेत्रों को प्रिय अभूतपूर्व दृश्य उपस्थित हुआ था। प्रभात का काल
और भी मनोरम प्रतीत होता था। हजारों व्यक्तियों के मुख से जागरण के समय 'णमो अरिहंताण' आदि मंगलमंत्रों का उच्चारण होता था। कहीं-कहीं लोग बड़े लय और राग के साथ प्रभाती पढ़ते हुए .चौबीस तीर्थंकरों का गुणगान करते थे :
वंदो जिन देव सदा चरणकमल तेरे । चरणकमल तेरे चरणारविंद तेरे ॥ ऋषभ अजित संभव अभिनंदन गुण केरे । सुमति पद्मश्री सुपार्श्व चंदाप्रभ केरे ॥
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