SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५४ चारित्रचक्रवर्ती पुष्ट गरीब आजीविका विहीन हैं, उनको आजीविका से लगाना चाहिये। जो गरीब अंगहीन हैं, अतिबालक अथवा अतिवृद्ध हैं, जिनमें कमाने की शक्ति नहीं है, उनका रक्षण करना चाहिए।" महाराज ने कहा-“जो पंच पाप करता है वह पापी है, जो उन्हें छोड़ता है वह पुण्यवान है। पंचपाप की पुष्टी से राज्य करना अन्याय है। प्रजा का अपने बच्चे की तरह पालन करना राजनीति है।" सांगली में संघ संचालक जवेरी बंधुओं का सम्मान आचार्यश्री का उपदेश सुनकर सांगली नरेश की आत्मा बड़ी हर्षित हुई। धर्म के अनुसार आचरण करने वाले महापुरुषों की वाणी का अंतःस्थल तक प्रभाव पड़ा करता है, कारण धर्म अंतःकरण की वस्तु है। अंतःकरण जब धर्माधिष्ठित हो जाता है, तब प्रवृत्ति में भी उसकी अभिव्यक्ति हुए बिना नहीं रहती। सांगली के समस्त श्रावकों ने संघ संचालक जवेरी बंधु का सम्मान करते हुए निम्नलिखित अभिनंदन-पत्र भेंट किया : . "श्रीमान् जिनभक्ति परायण सेठ पूनमचंद घासीलाल जोहरी, मुम्बई, के प्रति, हम सांगली के समस्त दिगंबरी श्रावक मिलकर आपको भारी आनंद के साथ यह मान पत्र देते हैं। श्री १०८ शांतिसागर आचार्य महाराज व उनके संघ को साथ में लेकर आप परम पूज्य श्री शिखरजी क्षेत्र की वंदना करने को निकले हैं, आप अपने न्यायोपार्जित धन को ऐसे पुण्य कार्यों में खर्च करते हैं और सातिशय पुण्य को बांध रहे हैं, इसको देख हमको अत्यन्त आनंद हो रहा है। इधर कुछ समय से दिगंबर साधुओं के संघ दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे, सो अब साक्षात दर्शन हो रहा है। शुद्धि चारित्र को पालने वाले मुनि, ऐलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी आदि सभी जन आचार्य शांतिसागर महाराज के अनन्य भक्त बन रहे हैं और गुरुसेवा में तत्पर हैं। इसीलिये संघको, चतुर्थकाल में होने वाले संघ की उपमा प्राप्त हो रही है। ऐसे अपूर्व दिगम्बर संघ की अनन्य भावों से सेवा करने के लिए आप तैयार हुए हैं, इसलिए हम सब आपका अभिनंदन करते हैं। चतुर्विध संघ पूर्वकाल से तीर्थाटन के लिए निकला करते थे। इसके लिए ग्रंथों में ऐतिहासिक प्रमाण बहुत से मिलते हैं। यात्रा के निमित्त से धनी श्रावक अपना द्रव्य खर्च करते थे। संघ के विहार द्वारा उत्तरीय प्रान्तों में भी जैनधर्म की यथार्थ तथा उत्कृष्ट प्रभावना हो ऐसी हमारी प्रबल इच्छा है। इसी प्रकार संघ का विहार और तीर्थ यात्रा जल्दी पूरी हो और फिर से हमें इन पवित्र विभूति के दर्शन शीघ्र ही लौटने पर हों यह जिनेश्वर के समीप हमारी उत्कृष्ट भावना है।" - समस्त श्रावक, सांगली (महा.) वीर संवत् २४५४, मार्गशीर्ष वदी ५, रविवार. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy