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तीर्थाटन
१५१ की कोई दवा नहीं है। मरने के बाद वे नरक पर्याय में जाकर अपने कुकर्म का फल भोगेंगे।
जिस प्रकार बड़े महत्व और सावधानी के साथ कोई अपनी निधि की रक्षा करता है, इसी प्रकार इस रत्नत्रय निधि भूषित आत्मा के विषय में ध्यान रखना चाहिये। आज के युग में महाव्रतों के पथ पर चलना यथार्थ में आग के साथ खेल करना है। दुर्दम्यवासनाओं का दमन करके उनको दास बनाने का काम लम्बी बातें करने से या आज के नेतृत्व की गद्दी पर समासीन होने से या सरस्वती सदनों से सम्मान प्राप्त करने से कई गुना कठिन काम है। इस अध्यात्मकला के कार्य के आगे वैज्ञानिक प्रवीणता तथा आविष्करण कला नगण्य दिखती है।
जिस जिनेन्द्र भक्त की दृष्टि में मुनि जीवन निधि से भी बड़ा दिखेगा, वह तो उसके साथ खिलवाड़ न कर उसके विषय में प्राणाधिक यथाशक्ति और यथामति सावधानी एवं सतर्कता रखेगा। मिथ्यात्व-ग्रस्त जीव की बात निराली है।
आशाधर जी ने लिखा है-“विवेकी गृहस्थ का कर्तव्य है, कि वह जगत के बंधु जिन धर्म की परंपरा को चलाने के हेतु दिगम्बर मुनियों के उत्पन्न करने का प्रयत्न करें तथा विद्यमान मुनियों के श्रुत ज्ञानादि गुणों के द्वारा उन्नत करने के लिये प्रयत्न करें, जिस प्रकार गृहस्थ अपनी संतति की उत्पत्ति द्वारा वहां वंश परंपरा चलाने का प्रयत्न करता है तथा संतान को गुणी बनाने का उद्योग करता है।"
जो व्यक्ति अपने प्रयत्नों की विफलता देखकर उत्साहहीन ही रहे हैं, उनके चित्त में स्थिरता के लिए वे कहते हैं कि पंचमकाल के दोष से मुनियों के गुणों के विकास की सिद्धि नहीं होने पर भी इस विषय में प्रयत्नशील श्रावक श्रेयोभाजन होता ही है। कदाचित गुणों के द्योतन कार्य में सिद्धि हो गई तो गुणों के द्योतन करने वाले का, साधर्मी जनों का तथा साधारण जनता का महान उपकार होगा, कारण सच्चे त्यागी के कारण ही धर्म की रक्षा, स्थिति, वृद्धि तथा सच्ची प्रभावना होती है। इससे त्यागी संख्या के निर्माणार्थ तथा उसे गुण मंडित बनाने में प्रयत्न करना चाहिये। वासनाओं पर अंकुश लगाना सरल नहीं है
वासनाओं का वेग बड़े-बड़ों को विचलित कर देता है, अतः विचलित होने वालों की बुराइयों के विज्ञापन से अन्य मोक्षपद में प्रवृत्तों का मार्ग विशेष कंटकाकीर्ण हो जाता है,
और नवीन मुमुक्षुओं के निर्माण में भयंकर अड़चनें होती हैं, अतः विवेक के प्रकाश में पूर्वापर विचार कर कार्य करना चाहिये। चिकित्सक रोगी के अंग का शक्ति भर सुधार १. जिनधर्मजगबंधु मनुबद्धुमपत्यवत्।
यतीन जनयितुं यस्येत्तथोत्कर्ष मितुंगुणैः ॥७१॥ (सागारधर्मामृत" अध्याय २) २. श्रयोयत्नवतोस्त्येव कलिदोषाद्गुणधुतौ।
असिद्धावपि तत्सिद्धौ स्वपरानुग्रहो महान् ॥७२॥ (सागारधर्मामृत" अध्याय २)
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