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________________ १५० चारित्र चक्रवर्ती होता है, श्रेणिक की नरकायु का कारण निरपराध मुनि के गले में सर्प डाला जाना था। अतः सम्यक्दृष्टि श्रावक विवेक पूर्वक स्थितिकरण उपगूहन, वात्सल्य अंग का विशेष ध्यान कर सार्वजनिक पत्रों में चर्चा नहीं चलाएगा।" आचार्यश्री का उपरोक्त मार्ग दर्शन सत्पुरुषों के लिए चिरस्मरणीय है। उच खल तथा दुर्गतिगामी जीव की निन्दा की ओट में सच्चे साधु के मार्ग में भी कंटक बिछ जाते हैं। अतः सार्वजनिक पत्रों में उत्सूत्र चलने वाले की भी चर्चा छापना उचित नहीं है। उसका स्वच्छनदवृत्ति वाले पर तो क्या असर पड़ेगा, सच्ची आत्माओं को कष्ट होगा। मिथ्यादृष्टि विधर्मी भी सत्साधु की निन्दा पर उतर आते हैं। सम्यक्त्वी जिनेन्द्र भक्त श्रेष्ठिवर का कथानक इस तत्त्व को हृदयंगम करने में सहायक है। अतः गुरुदेव का आदेश पालन करना प्रत्येक सज्जन धर्मात्मा श्रावक का पावन कर्तव्य है। वह आदेश दूरदर्शितापूर्ण है। साधु जीवन खिलवाड़ की वस्तु नहीं है ___ मैंने कहा-"महाराज एक धनी, किंतु विवेक शुन्य सेठ जी मेरे पीछे लग गये कि एक मुनिराज उनको ठीक नहीं लगते, उनके विरुद्ध आन्दोलन करो, तब मैंने उनसे कहा था कि एक दिगंबर मुनि का जीवन सामान्य वस्तु नहीं है। सर्वसाधारण के समक्ष उनके विरुद्ध चर्चा का ढोल पीटना मैं ठीक नहीं सोचता। हां! एकान्त में उनके विषय में कड़ी चर्चा करना उचित होगा।" __ मैंने यह भी कहा था-"शरीर पर फोड़ा होने से डाक्टर उस पर चाकू मारकर उसके विकार को दूर करने में संकोच नहीं करता है, किन्तु सर्व साधारण रूपी मक्खी उस पर न बैठे और घाव के जहर को न बढ़ावे, इसी कारण उस पर पट्टी बांधकर उपगूहन की दृष्टि का उपयोग लेना लाभप्रद होगा, अन्यथा हानि की संभावना है।" इस पर महाराज ने कहा -“ठीक है, सम्यक्त्वी श्रावक ऐसा ही कार्य करेगा।" इस प्रसंग में यह भी चर्चा करना उपयोगी दिखता है कि कभी-कभी ऐसे व्यक्ति होते हैं, जो न शास्त्र जानते हैं, न जिन्होंने स्वाध्याय ही किया है, किन्तु वे भी बड़े-बड़े शास्त्रज्ञों के गुरु बनकर त्यागी और व्रती व्यक्तियों के चरित्र को दोषी कहते हैं और दूसरे की नहीं सुनते। उनको पूज्य आचार्य महाराज की बात ध्यान में रखना चाहिये कि इस विषय को सार्वजनिक चर्चा का विषय न बनाकर योग्य चिकित्सा करना चाहिये। कुछ शास्त्रज्ञों को भी साधु निन्दा में बड़ा मजा आता है। वे कल्पित दोषों को लगाकर चारित्रधारी सत्पुरुषों पर कीचड़ उछाला करते हैं। कोई-कोई अखबार वाले उनके सहयोगी बन जाते हैं। इसका कारण यह है कि जैसे निर्दोष हरिण की हत्या में तत्पर शिकारी को जीवघात में मजा मिलता है, ऐसे ही ये दुराचार प्रेमी दुराचारी की तो स्तुति करते फिरते हैं, किन्तु सच्चरित्र व्यक्ति की बुराई को अपने दुष्ट स्वभाववश तैयार रहते हैं। जोंक प्रकृति के ऐसे दुष्टों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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