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तीर्थाटन शिखरजी की वंदना का विचार
इस अवसर पर बंबई के धर्मात्मा तथा उदीयमान पुण्यशाली सेठ पूनमचंद घासीलालजी जौहरी के मन में आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के संघकोपूर्णवैभव केसाथसम्मेदशिखरजी की वंदनार्थ ले जाने की मंगल भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने गुरूचरणों में आकर प्रार्थना की। आचार्यश्री ने संघको शिखरजी जाने की स्वीकृति प्रदान कर दी। वैसे पहले भी महाराज की सेवा में शिखरजी चलने की प्रार्थना की गई थी, किन्तु प्रतीत होता है कि काललब्धि उस समय नहीं आई थी और यही पुण्य निश्चय की मंगल-बेला थी, इससे आचार्य महाराज की अनुज्ञा प्राप्त हो गई। यह निश्चय जिसे भी ज्ञात हुआ, उसे आनन्द और आश्चर्य दोनों प्राप्त हुए। आनंद होना तो स्वाभाविक है, कारण धार्मिक समुदाय शिखरजी के आध्यात्मिक महत्व को सदा से मानता चला आ रहा है क्योंकि वहां से सदा तीर्थंकरों ने निर्वाण प्राप्त किया है, तथा आगामी भी निर्वाण स्थल की महत्ता शिखरजी को ही प्राप्त होगी। यह तो हुंडावसर्पिणी काल का प्रभाव है जो चार तीर्थंकर दूसरे स्थान से मुक्त हुए। उनमें वृषभनाथ तीर्थंकर का कैलाश पर्वत से मोक्ष हुआ। जिनसेन स्वामी ने भगवान वृषभदेव को सहस्रनाम के महामुन्वादिशतम् पाठ में महादेव लिखा है :
महाध्यानपतिर्ध्याता महाधर्मा महाव्रता ।
महाकारिरात्मज्ञो महादेवो महेशिता ॥ हमें तो प्रतीत होता है, कैलाशवासी शंभू महादेव भगवान वृषभनाथ हैं। हिन्दू पुराणों को वैज्ञानिक तथा समन्वयशील दृष्टि से देखने वाले व्यक्ति उक्त कथन का समर्थन करेंगे। अंगदेशीय चंपापुरी से वासुपूज्य भगवान का मोक्ष हुआ। नेमिनाथ प्रभु ने गिरनार को अपना निर्वाण धाम बनाया। महावीर प्रभु ने पावापुरी को निर्वाण भूमि बनाया। शेष बीस तीर्थंकरों तथा अगणित मुनियों ने सम्मेदशिखर से मोक्ष को प्राप्त किया। निर्वाण क्षेत्र की पूजा में पढ़ते हैं :
बीसों सिद्ध भूमि जा ऊपर, शिखर सम्मेद महागिरि भू पर।
एक बार वंदै जो कोई, ताहि नरक पशुगति नहिं होई॥ यहां कोई-कोई ‘एक बार वंदै' के स्थान में भाव सहित वंदै' पाठ रखना ठीक सोचते हैं, किन्तु एक बार वंदै' पाठ में भाव सहित वंदै' का भाव विद्यमान है। 'वंदना' शब्द में पूज्यता की दृष्टि पाई जाती है। जैसे देखना' और दर्शन करना' शब्द में अन्तर है। दर्शन में
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