SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिगम्बर दीक्षा ६७ उस समय मैंने कहा, “महाराज! मैं शेडवाल की पाठशाला में जाकर पढ़ना चाहता हूँ।" उस समय सब को यह भय था कि यहाँ से जाकर यह फिर कभी अपनी सूरत नहीं दिखावेगा। उस समय मेरी जमानत बालगोंडा ने ली। वहाँ से चलकर शेरोल ग्राम में रहा और रत्नकरंडश्रावकाचार पढ़ना प्रारंभ किया। मेरा अन्य शास्त्रों का पूरा-पूरा अभ्यास था ही। इससे तुलना करते हुए पढ़ने से शास्त्र के भावों को समझने में मुझे अधिक समय नहीं लगा । मैं रात्रि को अभ्यास करता था और दिन को व्याख्यान देता था। मेरे उपदेश में बहुत लोग आने लगे। ____कुछ समय के बाद रुड़की के पंचकल्याणक महोत्सव में आचार्य महाराज पहुँचे व मैं भी वहाँ गया। मुझे देखकर महाराज ने पूछा, “क्या सब कुछ पढ़कर आ गये? मैंने नम्रतापूर्वक कहा, “हाँ पढ़ आया।. साथ के सब त्यागी लोग हँस पड़े। मेरा जीवन सबके लिये पहले सरीखा था। जो मेरे पूर्व जीवन से परिचित था वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था कि मेरे जैसे विषयान्ध का जीवन भी इस आध्यात्मिक क्रांति का केन्द्र बनेगा। उस समय महोत्सव में चंद्रसागरजी का भाषण हुआ। इसके बाद मैंने उपदेश दिया, जिससे जनता मेरी ओर आकर्षित हुई। नररत्न की परीक्षा में प्रवीणता उस समय आचार्य महाराज ने चंद्रसागरजी के आक्षेप का उत्तर दिया था कि तुम्ही बताओ ऐसे को दीक्षा देना योग्य था या नहीं? लोगों को ज्ञात हुआ कि महाराज मनुष्य के परीक्षण में कितने प्रवीण थे। गुरुप्रसाद से छ: वर्ष बाद मैंने सन्१९२९ में सोनागिरि में दिगंबर मुनि की दीक्षा ली। उन्होंने कहा, “आचार्यश्री महान् योगी थे। उनकी पावन दृष्टि से मुझ जैसे पतित आत्मा का जीवन पावन बन गया। उनकी अद्भुत शांत परिणति, मृदुल एवं प्रिय वाणी से मेरे जीवन में आध्यात्मिक क्रांति हुई। मैंने कभी भी महाराज में उग्रता या तीव्रकषाय का दर्शन नहीं किया। उनकी वाणी बड़ी मार्मिक होती थी। जिज्ञासु की विविध प्रश्नमालिकाओं का समाधान उनके एक ही उत्तर से हो जाता था। जीवन की उलझनों को सुलझाने की अपूर्व कला उनमें थी। लगभग २२ वर्ष से मैं गुरुदेव के चरणों के प्रत्यक्ष सानिध्य में नहीं हूँ।' यद्यपि मैं उनके पाद-पद्मों की सर्वदा वंदना करता हुआ अंतर्दृष्टि द्वारा दर्शन करता रहता हूँ। जब मैं उनके संग में था, उस समय उनका शास्त्र-वाचन इतना अधिक नहीं १. सन् १९५२ के सितम्बर माह में पाय सागर महाराज ने दहीगाँव में गुरुदेव के २२ वर्ष बाद दर्शन कर नेत्र तृप्त किए थे। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy