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________________ ९४ चारित्र चक्रवर्ती लिपटा हुआ था। इतने में मंदिर में अखण्ड प्रकाश हेतु नंदादीप' (अखण्ड दीपक) सुधारने को वहाँ का उपाध्याय आया। महाराज के ऊपर सर्प लिपटा देखकर वह जान छोड़कर भागा। बहुत लोग वहाँ आ गये, किन्तु क्या किया जाय, यह समझ में नहीं आता था? यदि गड़बड़ी की अथवा सर्प को दूर करने में बल प्रयोग किया, तो वह काट देगा, तब क्या भयंकर स्थिति हो जाएगी ? अतः सबके सब लोग घबड़ा रहे थे। बहुत समय के पश्चात् सर्प शरीर से उतरा और धीरे-धीरे मानों प्रसन्नता पूर्वक ही बाहर चला गया, कारण उसे सच्चे साधक महात्मा का परीक्षण करने का अवसर मिला था और परीक्षण में वे शुद्ध स्वर्ण निकले। नेमिसागर महाराज द्वारा प्राप्त सामग्री ___ मुनि नेमिसागर महाराज ने सन् १९५२ के लोणंद चातुर्मास के समय १७ उपवास किये थे। उनके तपोमय जीवन को बड़े-बड़े साधक प्रणाम करते हैं। मैंने उनसे आचार्य महाराज के विषय में पुन: पूछा तो उन्होंने कहा, “महाराज जब क्षुल्लक थे, तब वे हमारे कुड़ची ग्राम में पधारे थे। उनका आहार हमारे घर में हुआ था। उस समय से मेरा अंत:करण उनकी ओर आकर्षित हुआ। उन्होंने कहा था, “तुम लोग भगवान की पूजा, अर्चना, शास्त्र-वाचन, दान आदि करते हो, किन्तु यह सब गज-स्नान तुल्य है, कारण पश्चात् संसार के प्रपंच में फँसकर अपने को पुनः मलीन बनाते हो।" "महाराज का कोन्नूर में चातुर्मास हुआ। वहाँ लगातार चार माह पर्यन्त मैं उनकी सेवा में जाता था। वहाँ मैं अपने मित्र वंडोवा कुड़चीकर के साथ महाराज को आहार दिया करता था। मेरे मुनि बनने की मनोकामना पहले से ही थी। आचार्य महाराज के सत्संग से उस भावना को साकार रूपता प्राप्त हुई।" "वहाँ के चातुर्मास पूर्ण होने के पूर्व ही कार्तिक सुदी चौदस को मैंने तथा गोकाक के पायसागरजी ने उनसे ऐलक दीक्षा ली थी। इसके दस माह बाद आश्विन सुदी ११ को मैंने समडोली में निर्ग्रन्थ दीक्षा ली थी। वीरसागरजी भी मुनि बने थे। चंद्रसागरजी ने ऐलक दीक्षा ली। आचार्य महाराज सदृश विशुद्ध चरित्र निर्ग्रन्थ साधु का दर्शन हमने कहीं नहीं किया। उनके समागम से मेरी आत्मा कृतार्थ हो गई। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे गुरु चरणों के समीप रहने का सुअवसर मिलता रहा है।" १. लंकाद्वीपके अनुराधपुर में सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र केसमय से अब तकलगातार जलने वाले नंदादीपको राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबूने भी देखाथा । उसके बारे में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “अधिक चमत्कार और आश्चर्यकी बात हमको सुनायी गयी किवहाँजोदीपजलरहाथा, वहभी महेन्द्र काजलाया हुआ है। उस समय से आज तक यह दीपकभी बुझा नहीं है । बौद्धों ने उसे बाईस-तेईस सौ बरसों से बराबर जलाये रखा है । यदि यह सच है तो शायद दुनिया में ऐसी कोई दूसरी अग्निशिखा न मिलेगी जो दो हजार बरसों से भी ज्यादा समय से बराबर जलती आरही हो।"- आत्मकथा, पृ.२८०। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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