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चारित्र चक्रवर्ती महाराज बोले, “उस समय हम सिद्ध भगवान का ध्यान करते थे।"
मैंने जिज्ञासु के रूप में पूज्य श्री से पूछा, "जब आपके शरीर पर सर्प चढ़ा, तब उससे शरीर का स्पर्श होने पर आपके शरीर को विशेष प्रकार का स्पर्शजन्य अनुभव होता था अथवा नहीं।"
महाराज ने कहा, “हम ध्यान में थे। हमें बाहरी बातों का भान नहीं था।" विचारशील व्यक्ति सोच सकता है कि सर्पकृत उपसर्ग महाराज के जीवन की अग्नि परीक्षा से कम नहीं है। धन्य है उनकी भेद विज्ञान की ज्योति, जिससे वह अपनी आत्मा को सर्प-बाधा-मुक्त जानते हुए, आत्मा से भिन्न शरीर को सर्प वेष्ठित देखते हुए भी परम शांत रहे। यथार्थ में उनका नाम शांतिसागर अत्यंत उपयुक्त था। कोन्नूर में उड़ने वाले सर्प द्वारा उपद्रव में भी स्थिरता
तारीख २३-१०-५१ को हम महाराज के साथ रहने वाले महान् तपस्वी निर्ग्रन्थ मुनि १०८ श्री नेमिसागरजी के पास बारामती में पहुँचे और महाराज शांतिसागरजी के विषय में कुछ प्रश्न पूछने लगे। उनसे ज्ञात हुआ कि वे लगभग २८ वर्ष से पूज्यश्री के आश्रय में रहे हैं। ___ कोन्नूर में सर्पकृत परीषह के विषय में जब हमने पूछा, तब वे बोले, “कोन्नूर में वैसे सात सौ से अधिक गुफाएँ है, किन्तु दो गुफा मुख्य हैं। महाराज प्रत्येक अष्टमी, चौदस को गुफा में जाकर ध्यान करते थे। उस दिन उनका मौन रहता था। एक दिन की बात है कि वे गुफा में घुसे। उनके पीछे ही एक सर्प भी गुफा में चला गया। वह बड़ा चंचल था। वह सर्प उड़ान मारने वाला था। अनेक लोगों ने यह घटना देखी थी। जब लोग महाराज के समीप पहुँचते थे, तो वह सर्प महाराज की जंघाओं के बीच में छुप जाता था। लोगों के दूर होते ही वह इधर-उधर फिरकर उपद्रव करता था।" ___ मैंने पूछा, “यह कब की बात थी?" उन्होंने कहा, “यह मध्याह्न की बात थी। वह सर्प तीन घंटे तक रहा, पश्चात् चला गया। लोग यदि साहस कर उसे पकड़ लेते, तो इस बात का भय था कि कहीं वह क्रद्ध होकर महाराज को काट न दे। इससे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते थे।"
नेमिसागर महाराज ने बताया था कि कोन्नूर में पूज्यश्री से उन्हें पंचाणुव्रत मिले थे। उन्होंने यह भी कहा था, "चौमासे में मैं शास्त्र पढ़ता था और महाराज कन्नड़ी भाषा में सब श्रावकों को समझाया करते थे।"
मैंने पूछा, “विपत्ति के समय आपने महाराज की स्थिरता भंग होते क्या कभी देखी है?" उन्होंने कहा- “विपत्ति के समय कभी भी महाराज में घबड़ाहट नहीं देखी।" प्रसंगवश उनसे मैंने पूछा-“आपने और कौन सा महाराज का भीषण तथा प्रचंड योग देखा?"
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