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________________ दिगम्बर दीक्षा ह व उनके शरीर पर चढ़कर उसने उनके ध्यान में विघ्न डालने का प्रयत्न किया । किन्तु उसका उन पर कोई भी असर नहीं हुआ। वे भेद विज्ञान की विमल ज्योति द्वारा शरीर और आत्मा को भिन्न-भिन्न देखते हुए अपने को चैतन्य का पुंज सोचते थे, अतः शरीर पर सर्प आया है, वह यदि दंश कर देगा, तो मेरे प्राण न रहेंगे, यह बात उन्हें भयविह्वल न बना सकी। वे वज्र की मूर्ति की तरह स्थिर रहे आए। शरीर में अचलता थी, भावों में मेरु स्थरता । आत्मचिंतन से प्राप्त आनंद में अपकर्ष के स्थान में उत्कर्ष ही हो रहा था। वे सर्प, सिंह, व्याघ्र, अग्नि, आदि की बाधा को अत्यंत तुच्छ जानते थे । उनकी दृष्टि मोहनीय, अंतराय, वेदनीय, ज्ञानावरणादि कर्मों के विनाश की ओर थी । वे सोचते थे कि ये सर्पादि कर्मों के उदयानुसार आकर जीव को व्यथा पहुँचाते हैं। अतः संकटों के मूलकारण कर्मों का संहार करना चाहिये । सर्प के उपद्रव से अविचलित होना, उनके उत्कृष्ट आत्मविकास तथा अंतः निमग्नता का प्रमाण थी । यह जिन धर्म का ही प्रभाव है कि एक श्रीमंत कुलोत्पन्न, सम्पन्न, सुखी पुरुष यमराज के प्रतिनिधि द्वारा शरीर पर चिपटते हुए भी आत्मध्यान में निमग्न रहे आते हैं, क्योंकि उन्होंने महान् आत्माओं द्वारा पालन किये जाने वाले महाव्रतों के पालन की भीष्म प्रतिज्ञा थी। जैसे सती सीता की महत्ता अग्निपरीक्षा से प्रकाश में आई थी, वैसे ही महाराज की विमल तपश्चर्या का प्रभाव सर्पपरिषह जय द्वारा व्यक्त हुआ था । सर्पकृत उपसर्ग उन्होंने अनेक बार सहे हैं। विपत्ति में दृढ़वृत्ति एक बार गजपंथा में पंचकल्याणक महोत्सव के समय मैंने महाराज से पूछा था, " महाराज सर्पकृत भयंकर उपद्रव के होते हुए, आपकी आत्मा में घबराहट क्यों नहीं होती थी, जबकि सर्प तो साक्षात् मृत्युराज ही है ?" महाराज बोले, विपत्ति के समय हमें कभी भी भय या घबड़ाहट नहीं हुई। सर्प आया और शरीर पर लिपट कर चला गया, इसमें महत्व की बात क्या है ? " मैंने कहा, "उस मृत्यु के प्रतिनिधि की बात तो दूसरी, जब अन्य साधारण तुच्छ जीवकृत बाधा सहन करते समय सर्वसाधारण में भयंकर अशांति उत्पन्न हो जाती है, तब आपको भय न लगा, यह आश्चर्य है । " महाराज, ,"हमें कभी भी भय नहीं लगता। यहाँ तो भीती की कोई बात भी नहीं थी । यदि सर्प का हमारा पूर्व का बैर होगा, तो वह बाधा करेगा, अन्यथा नहीं। उस सर्प ने हमारा कुछ भी बिगाड़ नहीं किया । " मैंने कहा, "महाराज, उस समय आप क्या करते थे, जब सर्प आपके शरीर पर लिपट गया था ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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