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चारित्र चक्रवर्ती
करूँगा । उसमें कदाचित् प्राण जावे तो मुझे उसकी परवाह नहीं है। "
इनके परिणाम वैराग्य सागर में डूबे हुए थे व उनके पीछे संयम, सदाचार तथा सत्य का अपार बल था । इससे गुरुदेव की आत्मा में यह विश्वास उत्पन्न हो गया कि सातगौड़ा
प्रत्येक शब्द सत्य की शक्ति से पूर्ण है। उपस्थित हजारों लोगों ने गुरुदेव से विनय की "महाराज ! ये बहुत पवित्र आत्मा हैं । ये स्वप्न में भी अपने व्रत को दूषण न लगावेंगे ।" मुनि पदवी
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अंत में निर्ग्रन्थ दीक्षा देने का निश्चय हो गया । दीक्षा देने का श्रेष्ठ योग भी समीप था । पंचकल्याणक के समय भगवान के वैराग्य का काल आया । लौकान्तिक देवों ने आकर भगवान के वैराग्य की अनुमोदना की। भगवान पालकी में विराजमान होकर दीक्षावन में पहुँचे। ऐसे उत्कृष्ट अवसर पर ऐलक जी ने निर्ग्रन्थ रूप धारण करने का निश्चय किया । भगवान के साथ ही उन्होंने वस्त्र त्याग कर दिगंबर मुद्रा धारण की और केशलोंच प्रारंभ किया। अब ऐलक जी मुनि शांतिसागर बन गये, जिन्हें जगत चारित्र चक्रवर्ती आचार्य महाराज के नाम से हार्दिक भक्ति द्वारा पूजता है ।
उस समय वैराग्य का अवर्णनीय रस आ रहा था। हजारों भव्य स्त्री-पुरुष जय-जयकार कर रहे थे। उस समय के शांत रस का वर्णन कौन कर सकता है, जब इन नैसर्गिक मुनि जीवन वाली आत्मा ने चिरकांक्षित पवित्र मुद्रा धारण की। गुरुदेव ने इनका नाम गुणों को देखकर शांतिसागर रखा। इनके नाम में आगत सात शब्द शांति के ही द्योतक रहे हैं । भक्त का मोह
जब महाराज की दीक्षा का कार्य हो रहा था, उस समय महाराज के एक श्रीमंत प्रेमी नेत्रों से अश्रुधारा बहा रहे थे । वे सोच रहे थे कि किस प्रकार इनके मुनिपद का निर्वाह होगा। गृहस्थ समाज शिथिलता और प्रमाद में डूबी हुई है। उसे आगम की आज्ञा का ध्यान नहीं है, जबकि महाराज आगम की आज्ञा से जरा भी डिगने वाले नहीं हैं, इसलिये उन्हें भविष्य बड़ा अनिष्टपूर्ण दिखाई देता था ।
उस समय महाराज ने सांत्वना के शब्द कहकर समझाया, "डरने की क्या बात है ? यदि व्रत पालने योग्य सामग्री नहीं रहेगी, तो हम जंगल में रहकर समाधि धारण कर लेंगे।"
शांति के सागर में प्रेम और माधुर्य का जल भरा है, इसमें तनिक भी खारापन नहीं है । यहाँ छोटे-छोटे जीवों को भी अभय मिलता है।
अभी ऐलक अवस्था में केवल लंगोटी पास में थी, उससे ये तीर्थंकर की जिन मुद्रा के धारी नहीं कहे जाते थे। उतना सा भी परिग्रह इन्हें संयतासंयत गुण स्थान से ऊँचा नहीं उठने देता था। आश्चर्य है कि किन्हीं जैन कहे जाने वालों में परिग्रह- परिकर रखते हुए भी अपने को संयत कहने में और कहलाने में संकोच नहीं किया जाता है । यथाजातमुद्रा
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