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________________ दिगंबरदीक्षा इसके बाद महाराज ऐनापुर आये। वहाँ एक निर्ग्रन्थ मुनिराज का समागम मिला। इससे उनके अंत:करण में बड़ा हर्ष हुआ। महाराज के जीवन में यह विशेष बात थी कि गुणी पुरुष का समागम होने पर इनके अंत:करण में प्रमोद का भाव उत्पन्न होता था। यरनाल में पंचकल्याणक ऐनापुर में एक पक्ष पर्यन्त रहकर ये यरनाल पधारे। वहाँ जिनेन्द्र भगवान का पंचकल्याणक महोत्सव बड़े वैभव के साथ हो रहा था। आसपास जैनियों की लाखों की संख्या है, इसलिये अपरिमित जनसमुदाय उस महोत्सव के दर्शनार्थ वहाँ एकत्रित हुआ था। यरनाल में निर्ग्रन्थ मुनि देवेन्द्रकीर्ति महाराज पधारे थे। गुरु से दिगंबर दीक्षा मांगना महाराज ने उनके समीप जाकर प्रार्थना की, "भगवन् ! आपकी आज्ञानुसार मैने व्रतों का पालन किया। अब प्रार्थना है कि मनुष्य जन्म की उत्कृष्ट निधि निर्ग्रन्थ दीक्षा देकर मेरे जन्म को कृतार्थ करें।" उस समय देवेन्द्रकीर्ति स्वामी ने कहा, “यह दिगंबर दीक्षा लेना साधारण बात नहीं है, आज समय की गति विचित्र है। मिथ्यात्वी जीवों की प्रचुरता है। दुष्ट लोगों के अभद्र वचन सुनकर सहज ही मन में मलीनता और व्रत के प्रति ग्लानि आना संभव है। परिषहों का प्रचण्ड प्रहार भी परिणामों को विचलित कर आत्मा को हिला देता है। यदि निर्ग्रन्थ पद लेकर निर्दोष रीति से उसका पालन न किया तो जीव गिरकर नीच पद को पाता है। इसलिये असमर्थ आत्मा इसे न धारण कर शक्ति के अनुसार संयम लेते हैं। सोचो! क्या तुम इस दुर्धर निर्ग्रन्थ पद का भार उठा सकोगे? जल्दी मत करो, जल्दी में काम करना, पीछे पश्चाताप का कारण होता है।" स्वामी के महत्वपूर्ण उपदेश ने यह स्पष्ट कर दिया कि महाव्रत का धारण करना तलवार की धार पर चलने से भी कठिन है। ज्ञान और वैराग्य विभूषित मोक्षाभिलाषियों को यह आत्मा के लिये पुष्प शैय्या सदृश आह्लादप्रद होती है, किन्तु दुर्बल आत्मा को यह शरशैय्या के समान संक्लेश पैदा करती है। ___ महाराज ने गुरुचरणों में विनय पूर्वक कहा, “स्वामीन् ! आपका कथन अक्षरश: सत्य है, किन्तु मैंने वर्षों से निर्ग्रन्थ दीक्षा के हेतु अपनी आत्मा को तैयार कर लिया है। जिनेन्द्र भगवान के प्रसाद से तथा आपके आशीर्वाद से इस पद की प्रतिष्ठा की सदा रक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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