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________________ लोकस्मृति ४६ 1 विश्वसनीय मानी जाती थी । प्रत्येक के हृदय में उनके पवित्र व्यक्तित्व के प्रति अपार आदर तथा श्रद्धा का भाव पाया जाता था । वे स्वभाव से उदार, दयालु तथा तेजस्वी थे । उनका गृहवास जल से भिन्न कमल की वृत्ति का स्मरण कराता था । उनका शास्त्र प्रवचन तथा शंका-समाधान बहुत ही आकर्षक तथा मार्मिक था, इस कारण मेरा हृदय उनकी ओर अधिक आकर्षित हुआ। उनके परिवार के सभी व्यक्तियों के साथ मेरा निकट संबंध रहा है। वे सभी धार्मिक रहे हैं । सर्पराज का शरीर पर लिपटना महाराज की तपस्चर्या अद्भुत थी । कोगनोली में लगभग आठ फुट लम्बा स्थूलकाय सर्पराज उनके शरीर से दो घंटे पर्यंत लिपटा रहा । वह सर्प भीषण होने के साथ ही. वजनदार भी था। महाराज का शरीर अधिक बलशाली था, इससे वे उसके भारी बोझ को धारण कर सके। दो घंटे बाद मैं उनके पास पहुंचा। उस समय वे अत्यंत प्रसन्न मुद्रा थे। किसी प्रकार की खेद, चिंता या मलिनता उनके मुख मंडल पर नहीं थी । उनकी स्थिरता सबको चकित करती थी । 1 शेर आदि का उनके पास प्रेमभाव से निवास व ध्यान कौशल्य 1 महाराज गोकाक के पास एक गुफा में प्रायः ध्यान किया करते थे । उस निर्जन स्थान शेर आदि भयंकर जंतु विचरण करते थे । प्रत्येक अष्टमी तथा चतुर्दशी को उपवास तथा अखंड मौन धारण कर ये गिरि-कन्दरा में रहते थे । वहाँ अनेक बार व्याघ्र आदि हिसंक जंतु इनके पास आ जाया करते थे, किन्तु साम्यभाव भूषित ये मुनिराज निर्भीक हो आत्मध्यान में संलग्न रहते थे । गोकाक के पास कोन्नूर की गुफा में भी सर्प ने आकर इन पर उपसर्ग किया था, किन्तु ये मुनिराज अपने साम्य भाव से विचलित नहीं हुए। महाराज ध्यान में निमग्न होते थे, तब उनकी तल्लीनता को वज्रपात द्वारा भी भंग नहीं किया जा सकता था। एक समय वे अषाढ़ बदी अष्टमी को समडोली में अष्टमी की संध्या से जो ध्यान में बैठे, तो नवमी की प्रभात तक नहीं उठे। दस बजे तक लोगों ने प्रतीक्षा की, पश्चात् चिन्तातुर भक्तों ने दरवाजा तोड़कर भीतर घुसकर देखा तो महाराज ध्यान में ही मग्न पाये गये । उस समय हल्ला होने पर भी उनकी समाधि भंग नहीं हुई थी । अन्य साधुओं व जनता पर अपूर्व प्रभाव अन्य साम्प्रदाय के बडे-बडे साधु और मठाधीश इनके चरित्र और तपस्या के वैभव के आगे सदा झुकते रहे हैं। एक बार जब महाराज हुबली पधारे, उस समय लिंगायत सम्प्रदाय के श्रेष्ठ आचार्य सिद्धारूढ स्वामी ने इनके दर्शन किये और वह इनके भक्त बन गये । उन्होंने अपने शिष्यों से कहा था कि जीवन में ऐसे ही महापुरुष को अपना गुरु बनाना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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