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________________ ४४ लोकस्मृति कहा कि धार्मिक सम्पत्ति का लौकिक कार्यों में व्यय करना दुर्गति तथा पाप का कारण है। इन सप्त क्षेत्रों में धार्मिक द्रव्य का उपयोग करना हितकारी है : जिन बिम्बं जिनागारं जिन यात्रा प्रतिष्ठितम् । दानं-पूजां च सिद्धांतलेखनं सप्त क्षेत्रकम् ॥ मेरे मार्ग में विघ्नों की राशि सदा आई, किन्तु गुरुदेव के आदेशानुसार प्रवृत्ति करने से मेरा काम शांतिपूर्वक होता रहा । शास्त्रसंरक्षण में उनका विश्वास था कि इस कलिकाल में भगवान की वाणी के संरक्षण द्वारा ही जीव का हित होगा, इसलिये वे शास्त्र संरक्षण के विषय में विशेष ध्यान देते थे। आगम के भक्त उन्होंने बतलाया कि एक बार मैंने(लेखक ने)आचार्यश्री को लिखा था कि भगवान भूतबली स्वामी रचित महाधवल ग्रन्थ के चार-पाँच हजार श्लोक नष्ट हो गये हैं, उस समय उनको शास्त्र सरंक्षण की गहरी चिंता हो गई थी। उस समय मैं सांगली में था और वर्षाकाल में ही मैं उनकी सेवा में कुन्थलगिरि पहुंचा। बम्बई से संघपति गेंदनमल जी, बारामती से चंदूलाल जी सराफ तथा नातेपूते से रामचन्द्र धनजी दावड़ा वहाँ आये थे। सबके समक्ष आचार्य महाराज ने अपनी अंतर्वेदना व्यक्त करते हुए कहा-“धवल महाधवल ग्रंथ महावीर भगवान की वाणी है। उसके चार-पाँच हजार श्लोक नष्ट हो गये हैं, ऐसा पत्र प. सुमेरुचंद्र शास्त्री का मिला, इसलिये आगामी उपाय ऐसा करना चाहिए जिससे कि ग्रंथों को बहुत समय तक कोई भी क्षति प्राप्त न हो। इसलिए इनको ताम्रपत्र में लिखाने की योजना करना चाहिये, जिससे वे हजारों वर्षों पर्यत सुरक्षित रहें। इस पवित्र कार्य में लाख रुपये से भी अधिक लग जाए, तो भी उसकी परवाह नहीं करनी चाहिये।" श्रुत संरक्षण का महान् कार्य उनके प्रत्येक शब्द में पवित्र साहित्य संरक्षण के प्रति उत्कृष्ट अनुराग भरा हुआ था। मुझ पर उनकी वाणी का बड़ा प्रभाव हुआ। मैंने १११११/- रुपये उस शास्त्र संरक्षण के निमित्त अर्पण किये । आज वह फण्ड लगभग तीन लाख रुपये का हो गया है। इस चिरस्मरणीय एवं महनीय शास्त्र संरक्षण का श्रेय पूज्य महाराज को है। प्रगाढ़ श्रद्धा कलिकाल की कृपा से धर्म पर बड़े-बड़े संकट आये। बड़े-बड़े समझदार लोग तक धर्म को भूल अधर्म का पक्ष लेने लगे, ऐसी विकट स्थिति में भी महाराज की दृष्टि पूर्ण निर्मल रही और उनने अपनी सिन्धु तुल्य गम्भीरता को नहीं छोड़ा। वे सदा यही कहते रहे कि जिनवाणी सर्वज्ञ भगवान की वाणी है । वह पूर्ण सत्य है। उसके विरुद्ध यदि सारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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