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लोकस्मृति
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“अप्पा ! अभी आपको नहीं जाने दूँगा। अभी मैं छोटा हूँ। बड़े होने के बाद आप मुझे समझाकर जावें ।" इस पर वे मुझे संतोषित करते थे।
मेंढक की प्राणरक्षा
एक दिन की बात है कि महाराज शौच को बाहर गये हुए थे । वापिस आने पर उनके हाथ में टुटे हुये लोटे को देखकर घर में पूछा गया कि यह लोटा कैसे टूटा ? तब उन्होंने बताया कि एक सर्प एक मेंढक को खाने जा रहा था। उसी समय उस मेंढक की प्राणरक्षा लिये तत्काल इस लोटे को पत्थर पर जोर से पटका जिससे वह साँप भाग गया। श्री पाटिल ने वह लोटा हमें दिखाया था ।
उन्होंने कहा-“आजी माँ की मरण बेला पर महाराज उन्हें शास्त्र सुनाकर सेवा करते थे।"
बहन
महाराज की बहिन कृष्णा बाई के विषय में उन्होंने कहा कि वे बाल विधवा थी । हमारे घर में ही रहकर व्रत-उपवास पूर्ण धार्मिक जीवन व्यतीत करती थी। वे अतिथि सेवा तत्पर थी। उनका मुझ पर बड़ा प्रेम था ।
बाबा का जीवन
मुनि वर्धमान सागर महाराज के विषय में पाटिल ने कहा, " वे बड़े परोपकारी सेवा परायण तथा अत्यंत दयालु थे । वे भोले स्वभाव के सत्पुरुष थे। मैं उनको बाबा कहता था और महाराज को अप्पा । इससे सभी लोग उनको अप्पा कहने लगे थे । वे जयसिंहपुर के बाहर खेत में जाकर एकान्त स्थान में दो या तीन घंटे पर्यन्त धूप में कायोत्सर्ग पूर्वक ध्यान करते थे । "
अपने पिता श्री कुंमगोंडा के विषय में उन्होंने कहा, "वे लोक व्यवहार में प्रवीण थे। गृहस्थी का सारा काम वे देखते थे तथा व्यवस्था करते थे । शास्त्र चर्चा में मेरे पिता का महाराज के साथ खूब बाद-विवाद हुआ करता था ।" तत्त्व का मन्थन कार्य बड़ी सूक्ष्मता के साथ होता था। मेरे पिता जब शास्त्र पढ़ते थे, तब महाराज को बड़ा संतोष होता था । इससे वे उनको ही शास्त्र बांचने को कहते थे । मेरे पिताजी तथा माता ने सन् १९१६ में आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लिया था। उनका महाराज के प्रति अगाध प्रेम था । यदि महाराज • राम थे तो वे लक्ष्मण तुल्य उनके परम भक्त थे । महाराज की आज्ञा अथवा इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करते थे । मेरे पिता ने ब्रह्मचर्य प्रतिमा ले ली थी। उनके भी भाव मुनि बनने के थे, किन्तु दुर्भाग्य से उनकी असमय में मृत्यु हो गई ।
जब महाराज ने भोज से लगभग २० मील की दूरी पर उत्तर में स्थित उत्तर ग्राम में
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