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________________ ३६ चारित्र चक्रवर्ती समझाती थी और कुछ प्रिय पदार्थ खिलाकर सबको शांत कर देती थी। महाराज का पुण्य जीवन हमारे घर में शास्त्र-चर्चा सतत चला करती थी। आचार्य महाराज व्रती थे, इससे आजी माँ उनका विशेष ध्यान रखती थी।श्री पाटिल ने यह भी बताया “जब मैं ५-६ वर्ष का था, तब मुझे वे (महाराज) दुकान के भीतर अपने पास सुलाते थे। वे काष्ठासन पर सोते थे। किन्तु मुझे गद्दे पर सुलाते थे। प्रभात में वे सामायिक करते थेव पश्चात् मुझे जगाकर पंचणमोकार मंत्र पढ़ने को कहते थे। वे मुझे रत्नकण्ड श्रावकाचार के श्लोक कंठस्थ कराते थे। वे अनेक प्रकार के सदोपदेश मुझे देते थे। प्रभात में मैं स्कूल चला जाता था। मध्याह्न में लौटकर आता था। उस समय महाराज अपने पास बैठाकर मुझे भोजन कराते थे, वे दूसरी थाली में मौन से एक ही बार भोजन करते थे। जब तक उनका आहार पूरा नहीं होता था, तब तक मैं उनके पास ही बैठा रहता था। दोपहर को वे मुझे कुछ देर पढ़ाते थे। पश्चात् वे मुझे किशमिश, बादाम, खोपरा, मिश्री आदि खिलाते थे। आम की ऋतु में निपाणी से हापुस आम मंगाकर खिलाते थे, किन्तु वे खुद कुछ भी नहीं खाते थे। मेरी माता को शास्त्र बताते थे। इससे मेरी माँ शास्त्र में प्रवीण हो गई थी। महाराज की दीक्षा के बाद मेरी माँ स्त्रियों को शास्त्र सुनाती थी। संध्या के समय महाराज मुझे खेत की ओर, तो कभी-कभी मैदान की तरफ घुमाने ले जाते थे। आजी माँ की मृत्यु के बाद महाराज दुकान में रात्रि को शास्त्र पढ़ते थे। उसी समय उनका मित्र रुद्रप्पा आया करता था। वह भी मुझ पर प्रेम करता था। प्राणरक्षा महाराज की बात का हमारे घर में बड़ा मान था। महाराज की दुकान पर १५-२० लोग शास्त्र सुनते थे। मलगोंडा पाटिल उनके पास शास्त्र सुनने रोज आता था। एक रात वह शास्त्र सुनने नहीं आया, तब शास्त्र चर्चा के पश्चात् महाराज उनके घर गये, वहाँ नहीं मिलने से रात में ही उसके खेत पर पहुँचे, वहाँ वे क्या देखते हैं कि मलगोंडा ने गले में फाँसी का फंदा लगा लिया है और वह मरने के लिये तत्पर है। यदि कुछ देर और हो जाती, तो उसकी जीवन लीला समाप्त हो गई होती। सौभाग्य से वह उस समय जीवित था। महाराज ने उसका फंदा खोला व अपनी दुकान में लाकर उसे खूब समझाया। उसकी अंतर्वेदना दूर की, जिससे उसने आत्महत्या का विचार बदल दिया। हमारे घर में अखण्ड शांति रहती थी। सब लोग महाराज के कंट्रोल में रहते थे। वे, मेरी माता तथा आजी एक बार ही भोजन करते थे। जब महाराज मेरी माता के समक्ष अपनी दीक्षा लेने की बात कहते थे, तब मैं आकर उनके पैरों से लिपट जाता था और कहता था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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