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________________ चारित्र चक्रवर्ती शूद्रों पर प्रेमभाव उनकी अस्पृश्य शूद्रों पर बड़ी दया रहती थी। हमारे कुएँ का पानी जब खेत में सींचा जाता था, तब उसमें से शूद्र लोग यदि पानी लेते थे, तब हम उनको धमकाते थे और पानी लेने से रोकते थे, किन्तु महाराज को उन पर बड़ी दया थी। वे हमें समझाते थे और उन गरीबों को पानी लेने देते थे। खेतों के काम में उनके समान कुशल आदमी हमने दूर-दूर तक नहीं देखा। खेत में गन्ने बोते समय उनका हल पूर्णतया सीधी लाईन में चलता था। उनके द्वारा बनाई गई तम्बाखू की पेढ़ी सर्व श्रेष्ठ रहती थी। वे सबसे बड़े प्रेम से बोलते थे। पशुओं पर भी उनका बड़ा भारी प्रेम था। उनको ये दिल खोलकर खिलाते-पिलाते थे। इनके बैल हाथी सरीखे मस्त रहते थे। इनके सामने जो गरीब जाता था, उसको मुक्तहस्त होकर ये अनाज दिया करते थे। बस्ती में छोटे बड़े सभी लोग इनके विरुद्ध जरा भी नहीं थे। वे भगवान के यहाँ से ही साधु बनकर आये थे। वे हमको अच्छी बातें समझाया करते थे। सर्प पर प्रेम एक दिन हमारे खेत में दो गज लम्बा साँप निकला। मैंने उसे मार डाला। यह बात उन्हें अच्छी नहीं लगी। उन्होंने मुझसे कहा कि तुमने अच्छा नहीं किया। यह कुलीन आदमी का काम नहीं। अपने जीवन में बस इतने ही कड़े शब्द इनके मुँह से सुने। इससे उनको इतना बुरा लगा कि वे तुरन्त वहाँ से अन्यत्र चले गए। इतना होते हुए भी उनकी हम पर दया थी। गुड़ तथा शक्कर तैयार करने में वे श्रेष्ठ थे। एक दिन हमने उनसे बिना पूछे गुड़ बनाने में उनकी नकल की तो हमारी चासनी बिगड़ गई। वे सभी कामों में बहुत चतुर थे। जब हमने सुना कि वे स्वामी' बन गये, तब मेरे हृदय में बड़ा दुःख हुआ। आंखों में आंसू आ गये। उस समय मुझे पश्चाताप होता था, कि मैं इतने बड़े महात्मा से किस प्रकार कठोर बातें कह देता था और वे महात्मा चुप रहते थे। उनके साधु बनने से सारे गांवे को बड़ा दुःख हुआ। गरीबों के उद्धारक गांव में पुराने लोगों में जब चर्चा चलती थी, तब लोग यही कहते थे कि हमारे गाँव का रत्न चला गया, एक अच्छे सत्पुरुष चले गये। गरीब लोग आँखों से आँसू बहाकर यह कहकर रोते थे कि हमारा जीवन दाता चला गया। शूद्र लोग उनके वियोग से अधिक दुःखी हुए थे, क्योंकि उन दीनों के लिये वे करुणा सागर थे। अभी तक हममें जो कुछ अच्छी बातें हैं, उसका कारण वे स्वामी जी ही हैं। हमने कभी चोरी नहीं की, मिथ्या भाषण भी नहीं किया, कुशील सेवन भी नहीं किया तथा दूसरे की बहु-बेटियों को माता और बहिन की दृष्टि से देखा, इसका कारण महाराज का पवित्र उपदेश है। वे कभी भी व्यर्थ बातें नहीं करते थे। गप्पें भी नहीं लगाया करते थे। हम सबको व्यर्थ की बाते करने से रोकते थे। स्वामी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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