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चारित्र चक्रवर्ती
अतिलोभ या कुटुम्ब के प्रति अत्यासक्ति नहीं पायी जाती थी । वे अल्प आरंभ तथा अल्प परिग्रह वाले सत्पुरुष थे । विषयासक्त संसार और उनमें जमीन आसमान का अंतर था। वे कठोर भूमि पर शयन करते थे । गद्दी का उपयोग नहीं करते थे ।
उनका शरीर अत्यंत निरोग तथा सशक्त था । उनके शरीर के समान उनकी आत्मा भी पूर्ण स्वस्थ थी । उनके स्वभाव में तनिक भी गर्मी नहीं थी । “क्रोध, चंचलता आणि अतिवेगाने कोणतेहिं काम ना करिता; धैर्य आणि विचारपूर्वक ते कार्य करित होते (वे क्रोध, चंचलता तथा अत्यंत वेग से कोई काम नहीं करते थे । धैर्य तथा विचारपूर्वक ही कार्य करते थे । ) ।” इन्होंने मिथ्यात्व का त्याग कराया
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यहाँ पाटिलों का सदा प्रभाव रहा है, किन्तु भेदनीति के कारण ब्राह्मणों ने अपना विशेष स्थान बनाया है। लोग मिथ्यादेवों की आराधना करते थे । यहाँ के मारुति के मंदिर में जाते थे । लिंगायतों तथा ब्राह्मणों के धर्मगुरुओं की भक्ति - पूजा करते थे । उनका उपदेश सुनते थे । उनकों भेंट चढ़ाते थे। इस प्रकार के गाढ़ मिथ्यान्धकार में निमन लोगों को सत्पथ में लगाने का सामर्थ्य किसमें था ? महाराज के उज्ज्वल व्यक्तित्व तथा पवित्र उपदेश के प्रभाव से लोगो ने गृहीतमिथ्यात्व का त्याग करके सम्यक्त्व के मार्ग को ग्रहण किया। महाराज के प्रभाव से जैनियों को बौद्धिक तथा मानसिक स्वातंत्र्य मिला और समाज का परित्राण हुआ ।
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महाराज की सभी प्रवृत्तियाँ धैर्य के उन्मुख तथा धर्मानुकुल होती थीं। वे धैर्य नीति, मिथ्यात्व - निराकरण तथा अहिंसा - प्रचार के सिवाय लौकिक व्यवहार अथवा राजनीति के पंक में लिप्त नहीं होते थे ।
प्रकृति सिद्ध महापुरुष
हमारे पूर्वज बताते थे कि पूना के समान इस भोजभूमि में अनेक ख्याति प्राप्त कलाकार, विद्वान् तथा मर्मज्ञ लोगों ने जन्म धारण किया है । रुद्रप्पा सदृश ध्यानी तथा सत्यव्रती वसप्पा लिंगायत सदृश ज्योतिषी तथा व्यायाम में श्रेष्ठ, सर्कस में श्रेष्ठ गायन विद्या में अतीव निपुण अनेक कलाकार यहाँ ही हुए हैं। बाहर इस प्रकार की प्रसिद्धी रही है कि जो व्यक्ति भोज वासियों के परीक्षण में उत्तीर्ण हुआ है, उसकी सर्वत्र जयजयकार हुई है। आचार्य महाराज के प्रति सभी भोजवासियों की श्रद्धा, भक्ति तथा आदर की भावना, इस बात को पहले से ही सूचित करती थी कि इस महापुरुष का सारे संसार में सर्वोपरि स्थान रहेगा। कोई भी मर्मज्ञ यदि महाराज के जीवन का सन्निकट रूप से निरीक्षण करता, तो वह इसी निष्कर्ष पर पहुँचे बिना नहीं रहता कि ये प्रकृतिसिद्ध महापुरुष प्रत्येक कार्य में सर्वश्रेष्ठ रहे हैं। दीक्षा लेने के बाद महाराज एक बार भोज पधारे थे। मंदिर में भगवान का
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