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________________ लोकस्मृति आचार्य शांतिसागर महाराज के साधु बनने के पूर्व का जीवन किस प्रकार का रहा, इस विषय में उन निस्पृह तथा तत्त्वदर्शी महान् आत्मा से विषय सामग्री प्राप्त करना असंभव देख, हमने उनकी निवास-भूमि आदि में विद्यमान व्यक्तियों के पास पहुंचकर सन् १६५२ में पहुँचकर प्रत्यक्ष चर्चा की एवं विविध प्रश्नों के फलस्वरूप कुछ महत्वपूर्ण बातें अवगत की। उनमें प्रमुख स्थान आचार्य महाराज के ज्येष्ठ बंधु मुनि १०८ श्री वर्धमान सागर महाराज से प्राप्त सामग्री का है, जो बड़ी कठिनता तथा सत्प्रयत्न से प्राप्त हुई। भोजग्राम के वृद्ध लोगों से वर्धमान स्वामी के सौरभ सम्पन्न जीवन की वार्ता विदित हुई। प्रामाणिकता, लोकोपकार, दीन-दु:खी एवं सत्पात्रों की सेवा-परायणता आदि उनके विशेष गुण थे। उनका स्वभाव बड़ा मधुर था। उनके सम्पर्क में आते ही हमें ऐसा लगा मानो हम हिमालय के समीप में आ गये हों। दो दिन उनके पास रहकर, जो कुछ सामग्री एकत्रित की जा सकी, वह इस प्रकार है। वे तत्त्वदर्शी, वीतरागी, महामुनि थे, अत: कुटुम्ब की चर्चा करना उनकी आत्मा को अनुकुल नहीं लगता था, फिर भी सौभाग्य से जो कुछ भी अल्प सामग्री ज्ञात हुई, वह अत्यंत महत्व की है। __ वर्धमान स्वामी ने बताया, “हमारे माता-पिता महान् धार्मिक थे। धार्मिक पुत्र अर्थात् महाराज पर उनकी अपार प्रीति थी। महाराज जब छोटे शिशु थे, तब सभी लोगों का उन पर बड़ा स्नेह था। वे उनको हाथों-हाथ लिये रहते थे। वे घर में रह ही नहीं पाते थे। बस्तीभर के वे ममत्व पात्र थे।" मैंने पूछा, “स्वामिन् संसार के उद्धार करने वाले महापुरुष जब माता के गर्भ में आते हैं, तब कुछ शुभ- शगुन कुटम्बियों आदि को दिखते हैं । माता को भी मंगल स्वप्न आदि का दर्शन होता है। आचार्य महाराज सदृश रत्नत्रय धारकों की चूड़ामणि रूप महान् विभूति का जन्म कोई साधारण घटना नहीं है। कुछ ना कुछ अपूर्व बात अवश्य हुई होगी?" महापुराण में कहा है कि जब भरतेश्वर माता यशस्वती के गर्भ में आए थे, तब उस माता की इच्छा तलवाररूप दर्पण में मुख की शोभा देखने की होती थी।' शुभ दोहला उन्होंने कुछ काल तक चुप रहकर पश्चात् बताया, “उनके गर्भ में आने पर माता को १. साऽपश्यत्स्वमुखच्छायां वीरसूरसिदर्पणे (१५-१३० महापुराण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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