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चारित्र चक्रवर्ती महाराज- "हम कपड़े की दुकान पर बैठते थे। सब काम पूर्ण सत्यता के साथ करते थे। बचपन से ही हमारी सच बोलने की आदत थी। अन्याय तथा अनीति से घृणा रहती थी।" मैंने पूछा- “महाराज ! व्यापार में आपका मन तो लगता होगा ?"
महाराज- “हमारा मन सिवाय धर्म ध्यान के दूसरे कामों में नहीं लगता था। हम व्यापार को निरपेक्ष भाव से करते थे।"
मैने पूछा- “इसका क्या कारण ?" महाराज-“जब हमारा निश्चय था कि घर छोड़कर हमें वन में जाना है, तब उसमें तल्लीनता और आसक्ति करने का क्या प्रयोजन ? इससे हम उदास भाव से काम करते थे।"
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आचार्य श्री व समाजोत्थान कोई व्यक्ति यह कहे कि उनको तो आत्मा की चर्चा करनी चाहिए थी, इन सामाजिक विषयों में साधुओं को पड़ने की क्या जरूरत है ? कोई-कोई साधु अपने को उच्च स्तर का बताने के उद्देश्य से सामाजिक हीनाचार (जैसे विधवा विवाहादि) का विरोध नहीं करते हैं और जनता की प्रशंसा की अपेक्षा करते पाये जाते हैं। आचार्य महाराज का इस प्रवृत्ति को समर्थन नहीं प्राप्त था। उनका चिंतन इस प्रकार था, जिन समाज-हित की बातों का धर्म से सम्बन्ध है, उनके विषय में यदि प्रभावशाली साधु सन्मार्ग का दर्शन न करें, तो स्वच्छंदाचरणरूपी व्याघ्र धर्मरूपी वत्स का भक्षण किए बिना न रहेगा। इन सन्मार्ग के प्रभावक प्रहरियों के कारण ही समाज का शील और संयमरूपी रत्न कुशिक्षा तथा पाप-प्रचाररूपी डाकुओं द्वारा लुटे जाने से बच गया।
. -प्रभावना, पृष्ठ २०१ आचार्य श्री व गृहस्थ धर्म मैंने पूछा-"महाराज! व्यापार में आपका मन तो लगता होगा ?" 'महाराज-"हमारा मन सिवाय धर्म ध्यान के दूसरे कामों में नहीं लगता था। हम व्यापार को निरपेक्ष भाव से करते थे।"
मैने पूछा- "इसका क्या कारण ?"
महाराज-"जब हमारा निश्चय था कि घर छोड़कर हमें वन में जाना है, तब उसमें तल्लीनताऔर आसक्ति करने का क्या प्रयोजन? इससे हम उदासभाव से काम करते थे।"
-प्रभात, पृष्ठ २३
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