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________________ प्रभात लिया, उसे छुड़ाना उसके लिये असंभव था। अच्छे हृष्ट-पुष्ट बैलों की जोड़ी द्वारा जो पानी की मोट खींची जाती थी, उसे ये अकेले खेंच लेते थे। दूर तक कूदने में इनके समकक्ष खोजने पर भी नहीं मिलेगा। शरीर वज्र की तरह कड़ा था। जब महाराज का संघ शिखरजी को गया था, तब वैयावृत्त करने वाले व्यक्ति कहते थे कि महाराज का पैर दबाने पर जरा भी नहीं दबता था। विशुद्ध ब्रह्मचर्य तथा वीर्यान्तराय कर्म का विशेष क्षयोपशम होने के कारण ही आज घोर तपश्चर्या और अनशन करने के पश्चात् भी अस्सी वर्ष की अवस्था में उनमें आसन का स्थैर्य है, गमनागमन की शक्ति है, जिसे देखकर अच्छेअच्छे शक्तिशाली भी दाँतों तले अंगुली दबाते हैं। त्याग भाव एक दिन मैंने पूछा, “महाराज आपके वैराग्य परिणाम कंब से थे?" महाराज, “छोटी अवस्था से ही हमारे त्याग के भाव थे। १७ या १८ वर्ष की अवस्था में ही हमारे निर्ग्रन्थ दीक्षा लेने के परिणाम थे। जो पहले बड़े-बड़े मुनि हुए हैं, वे सब छोटी ही अवस्था में निर्ग्रन्थ बने थे।" पिता की आज्ञा मैने पूछा, “फिर कौनसी बात थी, जो आप उस समय मुनि न बन सके ?' महाराज, “हमारे पिता का हम पर बड़ा अनुराग था। पिताजी ने आग्रह किया कि जब तक हमारा जीवन है, तब तक तुम घर में ही रहकर धर्म साधन करो। तुम्हारे घर से बाहर चले जाने से हमें बड़ा संक्लेश होगा। योग्य पुत्र का कार्य पिता को क्लेश उत्पन्न करने का नहीं है। अत: पिताजी के आग्रहवश हमें घर में ही रहना पड़ा। घर पर भी हम अत्यंत .. उदास रहते थे। हमारी किसी भी लौकिक कार्य में रुचि नहीं थी।" कर्नाटक पूर्वज भूमि एक दिन महाराज से उनके धार्मिक परिवार के विषय में चर्चा चलाई। सौभाग्य की बात है कि उस समय उनके पूर्वजों के बारे में भी कुछ बातें विदित हुई। ___ महाराज ने बताया था कि हमारे आजा का नाम गिरिगौड़ा था। हमारे यहाँ सात पीढ़ी से पाटिल का अधिकार चला आता है। पाटिल गाँव का मालिक/रक्षक होता है। उसे एक माह पर्यन्त अपराधी को दण्ड देने तक का अधिकार रहता है। महाराज ने यह भी बताया था कि हमारे पूर्वज सभी धार्मिक जमींदार थे। मुनितुल्य उनकी धर्म में निष्ठा रहती थी। चार ग्राम की पाटिली थी। पहले हमारे पूर्वज कर्णाटक में रहते थे। वहां से टीपू के कारण भोज ग्राम में आये थे। मैने पूछा-“महाराज ! व्यापार का कार्य आप कैसे चलाते थे।" Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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