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________________ प्रभात १८ निबाह ले जाती थी। जो व्रत वे एक बार ले लेती, उसके लिये यदि वे बीमार भी पड़ जाती, तो भी छोड़ती नहीं थी।"(पृष्ठ १३-आत्मकथा) .. गान्धीजी के धार्मिक विचारों पर उनकी माता तथा पिता का कितना अधिक प्रभाव पड़ा यह निम्नलिखित कथन से स्पष्ट होता है, “राजकोट में यह शिक्षा मिली कि सब सम्प्रदायों के प्रति सम्मान का भाव रखना चाहिये। हिन्दू धर्म के सब सम्प्रदायों के प्रति सम्मान का भाव रखना मैंने वहीं सीखा था, क्योंकि माताजी और पिताजी विष्णु मंदिर जाते थे, शिवालय में जाते और राम मंदिर में भी जाते थे। हम लोगों को भी, कभी तो वे अपने साथ ले जाते और कभी हमें भेज दिया करते थे। इसके सिवाय पिताजी के पास बीच-बीच में कोई (श्वेतांबर) जैन धर्माचार्य आया ही करते थे। पिताजी उन्हें सम्मान से रखते व भोजनादि कराते थे। वे लोग सांसारिक और धार्मिक विषयों की चर्चा किया करते थे। इनके सिवा पिताजी के कई पारसी और मुसलमान मित्र भी थे। जब वे लोग आपस में बातें करते तब सेवा-शुश्रूसा में लगे रहने के कारण मैं भी वहाँ मौजूद रहा करता था। इस वातावरण में रहने का जो प्रभाव मेरे ऊपर पड़ा उसका फल यह हुआ कि सब धर्मों के प्रति मेरे हृदय में समान सम्मान का भाव जम गया।" (पृष्ठ ५७-आत्मकथा) ___ छत्रपति शिवाजी पर उनकी माता जीजाबाई का गहरा असर पड़ा था। सब प्रवृत्तियाँ जब मोम की तरह मुलायम रहती हैं, उस समय जीवन पर माता पिता के अमिट संस्कार पड़ा करते हैं। ___ भारतीय गणतंत्र के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्रप्रसाद अपनी आत्मकथा में अपनी माता के प्रभाव के विषय में लिखते हैं - 'माता और दादी मुझे बहुत प्यार करती। बचपन से ही मेरी आदत थी कि मैं संध्या को बहुत जल्द सो जाया करता था और उधर कुछ रात रहते ही बहुत सवेरे जाग जाता था। जाड़ों में खास कर लम्बी रात होने के कारण रात रहते ही नींद टूट जाती और उसी समय से माँ को भी नहीं सोने देता। रजाई के भीतर ही भीतर उनको जगाता। वह जाग कर पराती (प्रभाती) भजन सुनाया करती। उन भजनों और कथाओं का असर मेरे दिल पर बहुत पड़ता।' सरदार वल्लभभाई पटेल ने राजेन्द्रबाबू के सम्बन्ध में पुस्तक के प्राक्कथन में लिखा है कि श्री राजेन्द्रबाबू को देखते ही उनकी सरलता और नम्रता की छाप हमारे दिल पर पड़ती है। ये नैसर्गिक गुण माता की सत्प्रवृत्तियों के फलस्वरूप ही प्राप्त हुए। माता की धर्मपरायणता आचार्यश्री के जीवन पर उनके माता-पिता की धार्मिकता का बड़ा प्रभाव था। सन् १९४८ के दशलक्षण पर्व में फलटन नगर में उन्होंने बताया था कि, “हमारी माताअत्यधिक धार्मिक थी, वह अष्टमी-चतुर्दशी को उपवास करती तथा साधुओं को आहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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